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________________ २१२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ओघ । अणाहार० कम्मइगभंगो। एवं उक्कस्सयं सामित्तं समत्तं । ४४४. जहण्णए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे पंचणा०-चदुदंसणा०पंचंत० जह० अणुभागबंधो कस्स० ? अण्ण० खवग० मुहुमसं० चरिमे० जह० वट्ट० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४ जह० कस्स० ? अण्ण० मणुस मिच्छादि० सागा० सव्वविसु० संजमाभिमुह० जह० वट्ट० । णिदा-पचला. जह० कस्स०? अण्ण. अपुव्वकरणखवग० णिद्दा--पचलाबंधचरिमे वट्ट० । सादासाद०--थिराथिर--सुभासुभजस०-अजस० जह• कस्स० ? अण्ण० चदुग० मिच्छादि० वा सम्मादि० वा परियत्तमाणमज्झिमपरिणामस्स जह० अणु० वट्ट० । अपच्चक्रवाणा०४ जह० कस्स० ? असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है । श्राहारक जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। - विशेषार्थ-यहाँ सर्वत्र उत्कृष्ट स्वामित्वका विचार करते समय मूलमें कहीं पर साकार-जागृत, और उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाला ये दो विशेषण दिये हैं और कहीं पर नहीं दिये हैं। पर ये जहाँनहीं दिये हों वहाँ इन्हें भी लगा लेना चाहिए, क्योंकि जो साकार-जागृत होता है उसके ही उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है। उसमें भी उत्कृष्ट अनुभागबन्धके योग्य सब विशेषताओंके रहते हुए उत्कृष्ट अनुभागबन्ध नियमसे होता ही है ऐसा भी एकान्त नियम नहीं है, इसलिए जब उत्कृष्ट अनुभागबन्ध हो रहा हो तभी उत्कृष्ट स्वामित्व जानना चाहिए। इसी प्रकार कहीं उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त या सर्वविशुद्ध आदि विशेषणका भी मूलमें निर्देश न किया हो तो उसे भी जान लेना चाहिए । यहाँ पर असंज्ञीके उत्कृष्ट स्वामित्व कहते समय जो सातादि प्रकृतियोंका पृथक्से संकेत । वे ये हैं.-देवगति,सातावेदनीय, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर. तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गापाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, निर्माण और उच्चगोत्र । इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। ४४४. जघन्यका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है? अन्तिम जघन्य अनुभागबन्धमें अवस्थित अन्यतर क्षपक सुक्ष्मसाम्परायिक जीव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्ताबन्धी चारके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत, सर्वविशुद्ध, संयमके अभिमुख और जघन्य अनुभागबन्ध करनेवाला अन्यतर मिथ्यादृष्टि मनुष्य उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। निद्रा और प्रचलाके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है? निद्रा और प्रचलाके बन्धके अन्तिम समयमें विद्यमान अन्यतर अपूर्वकरण क्षपक उक्त दो प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयश कीर्तिके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला और जघन्य अनुभागबन्ध करनेवाला अन्यतर चार गतिका मिथ्यादृष्टि और सम्यम्दृष्टि जीव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। अप्रत्याख्यानावरण चारके जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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