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________________ २०७ सामित्तपरूवणा तिण्णिआउ० ओघ । देवाउ०-देवगदि०४ किण्णभंगो । णिरय०-चदुजा०-णिरयाणु'०थावरादि०४ उक्क० कस्स० १ अण्ण तिरिक्ख० मणुस० मिच्छादि० तप्पा०संकि० । आदाउज्जो० उक्क० कस्स० १ अण्ण० दुगदिय० तिगदिय० तप्पा०विसु० उक० वट्ट० । णीलाए तित्थ० किण्ण० भंगो । काऊए तित्थय० णेरइ. सबवि०।। ४३६. तेऊए पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०तिरिक्ख०-एइंदि०-हुंड - अप्पसत्थवण्ण०४-तिरिक्वाणु०-उप०-थावर-अथिरादिपंच. णीचा०-पंचंत० उक्क० कस्स०? अण्ण देवस्स सोधम्मीसाणंत० मिच्छादि० सव्वसंकि०। सादा०-देषग०पसत्थतीसं तित्थय० उच्चा० उक्क० कस्स० ? अण्ण० अप्पमत्त सागा० सव्ववि० उक्क० वट्ट । इत्थि०-पुरिस०-हस्स-रदि-चदुसंठा०-चदुसंघ० उक्क० कस्स० ? अण्ण. देवस्स सोधम्मीसाणं० मिच्छा० तप्पा०संकि० उक्क० वट्ट । तिरिक्खाउ०आदाउज्जो० उक्क० कस्स० ? अण्ण० देवस्स तप्पा०विसु०। मणुसाउ० ? देवस्स स्वामी है। तीन आयुअोंका भङ्ग ओघके समान है। देवायु और देवगति चतुष्कका भङ्ग कृष्णलेश्याके समान है। नरकगति, चार जाति, नरकगत्यानुपूर्वी और स्थावर आदि चारके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? तात्प्रायोग्य संक्लेशयुक्त अन्यतर मिथ्यादृष्टि तिर्यञ्च और मनुष्य उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। आतप और उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्यविशुद्ध और उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाला अन्यतर दो गति का जीव आतपके और तीन गतिका जीव उद्योतके उत्कृष्ट अनभागबन्धका स्वामी है। नील लेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग कृष्णलेश्याके समान है। तथा कापोतलेश्यामें सर्वविशुद्ध नारकी तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ-यहाँ पर मनुष्यगति आदि अट्ठाईस प्रशस्त प्रकृतियाँ ये हैं.-मनुष्यगति, पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश कीर्ति और निर्माण । ४३६. पीतलेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्टअनुभागवन्धका स्वामी कौन है ? सर्व संक्लेशयुक्त अन्यतर मिथ्यादृष्टि सौधर्म-ऐशान कल्प तकका देव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। सातावेदनीय, देवगति आदि प्रशस्त तीस प्रकृतियोंके तथा तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत, सर्व विशुद्ध और उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाला अन्यतर अप्रमत्तसंयत जीव उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनभागबन्धका स्वामी है। वीवेद, परुषवेद. हास्य. रति चार मंम्शान और नार , पुरुषवेद, हास्य, रति, चार संस्थान और चार संहननके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट और उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाला अन्यतर मिथ्यादृष्टि सौधर्म और ऐशान कल्पतकका देव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। तिर्यञ्चायु, आतप और उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध अन्यतर देव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है । मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका १. ता. प्रतौ चदुजाणेरह..णिरयाणु० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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