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________________ २०८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे सम्मादि० तप्पामोग्गविसु० । देवाउ० ओघं ! मणुसगदिपंचग० अक्क० कस्स० ? अण्ण० देव० सम्मादि० सव्वविसु० । असंपत्त०-अप्पसत्थ०-दुस्सर० उक्क० कस्स० १ अण्ण० ईसाणहेडिमदेवस्स मिच्छा० तप्पा०संकि० उक० वट्ट० । ४३७. पम्माए पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०तिरिक्षगदि - हुंड०-असंपत्त०-अप्पसत्थवण्ण०४-तिरिक्खाणु०-उप०-अप्पसत्थ०अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० उक्क० कस्स० ? अण्ण० सहस्सारंतदेवस्स मिच्छादि० सागा० सव्वसंकि० । सेसं तेउ०भंगो । णवरि एइंदि०-आदाव-थावरं वज्ज । ४३८. मुक्काए पंचणा०-णवदंसणा०-आसादा०-मिच्छ०-सोलसक०-[ पंचणोक०] हुंड०-असंप०-अप्पसत्थवण्ण०४-उप०-अप्पसत्थवि०-अथिरादिछ०-णीचा०पंचंत० उक्क० कस्स० ? अण्ण. आणदादिदेव० मिच्छादि० सागा० संकि० । सादादिखविगाणं ओघं । चदुणोक०-चदुसंठा०-चदुसंघ० उक्क० कस्स० ? अण्ण० आणदादिस्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध अन्यतर सम्यग्दृष्टि देव मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। देवायुका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगतिपश्चकके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? सर्वविशुद्ध अन्यतर सम्यग्दृष्टि देव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, अप्रशस्त विहाययोगति और दुःस्वरके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट और उत्कृष्ट अनुभागवन्ध करनेवाला अन्यतर मिथ्यादृष्टि ऐशान कल्प तकका देव व नीचे का देव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ-यहाँ देवगति आदि प्रशस्त तीस प्रकृतियाँ ये हैं-देवगति, पञ्चन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग आहारकाङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश-कीर्ति, निर्माण और तीर्थकर। ४३७. पालेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकपाय, तिर्यञ्चगति, हुण्ड संस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, तियश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगात, अस्थिर आदि छह, नीच गोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत और सर्व संक्लेशयुक्त अन्यतर सहस्रार कल्प तकका मिथ्यादृष्टि देव उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी पीतलेश्याके समान है। इतनी विशेषता है कि यहाँ एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावर इन तीन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होनेसे उनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामित्व छोड़कर कथन करना चाहिए । ४३८. शुक्ललेश्या पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्ध का स्वामी कौन है ? साकार-जागृत और सर्व संक्लेशयुक्त अन्यतर आनतादिका मिथ्यादृष्टि देव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। सातादि क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। चार नोकषाय, चार संस्थान और चार संहननके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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