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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे णोक० ४१६. अणुदिस याव सव्वह त्ति पंचणा०छदंसणा ० - असादा ०- बारसक० - पंच१० - अप्पस त्थवण्ण ०४ - उप ० -अथिर-असुभ अजस० पंचंत० उक्क० कस्स ० ? अण्ण० सागा० उक्क० वट्ट० । सादा० - मणुस ० - पंचिंदि० - ओरालि० - तेजा ० - क० - समचदु०ओरालि० अंगो० - वज्जरिस०-पसत्थवण्ण ०४ - मणुसाणु ० - अगु० ३ - पसत्थ० -तस०४- थिरादिछ० - णिमि० - तित्थय ० उच्चा० उक्क० कस्स ० १ अण्ण० सागा ० णिय० सव्वविसु ० उक्क० वट्ट० । हस्स-रदि० उक्क० कस्स ० ? अण्ण० तप्पा० संकिलि० । मणुसायु० उक्क० कस्स ० ? अण्ण० तप्पा०विसु ० उक्क० वट्ट० । • ४१७. एइंदिए मणुस ० - मणुसाणु ० -उच्चा० उक्क० कस्स० ? अण्ण० बादरपुढ - बादरआउ०- बादरपत्तेय ० - बादरणियोदपज्ज० सागा० सव्वविसु० । एवं मणुसायु० । णवरि तप्पा ओंग्गविसुद्ध ० । सेसपगदीणं पसत्थाणं सो चेव भंगो । वरि बादरतेउ०- बादरवाउं० त्ति भाणिदव्वं । सेसं पंचिंदि० तिरि० अपज्ज० भंगो | णवरि बादरपज्जत्तगति भाणिदव्वं । एवं सव्वएइंदिय-पंचकायाणं च । णवरि तेउ-वाऊणं सायु-मणुसगदि- मणुसाणु १०- उच्चा० वज्ज० । १६४ ४१६. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ, यशःकीर्ति और पाँच अन्तराय इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत, और उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाला अन्यतर देव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है । सातावेदनीय, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत, नियमसे सर्वविशुद्ध और उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाला अन्यतर देव उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है । हास्य और रतिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला देव उक्त दो प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है । मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ! तत्प्रायोग्य विशुद्ध और उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाला अन्यतर देव मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है । ४१७. एकेन्द्रियों में मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक पर्याप्त और बादर निगोद पर्याप्त जीवोंमेंसे साकार जागृत और सर्वविशुद्ध अन्यतर जीव उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। इसी प्रकार मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि तत्प्रायोग्य विशुद्धके कहना चाहिए। शेष प्रशस्त प्रकृतियोंका वही भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि बादर अग्निकायिक पर्याप्त और बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंको स्वामी कहना चाहिए। इनके सिवा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों के समान है । इतनी विशेषता है कि बादर पर्याप्त ऐसा कहना चाहिए। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायवाले जीवोंके कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रको नहीं कहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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