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________________ सामित्तपरूषणा १६५ ४१८. पंचिंदि०-तस०२-पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगी. ओघं । ओरालि. मणुसभंगो । केसिं च दुगदियस्स ति भाणिदव्वं ।। ४१६. ओरालियमि० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छत्त०-सोलसक०पंचणोक०-तिरिक्वग०-एइंदि०-हुंड-अप्पसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-उप०-थावरादि०४. अथिरादिपंच-णीचा०-पंचंत० उक्क० कस्स० ? अण्ण० पंचिंदि० सण्णिस्स तिरिक्व० मणुस० सागा० णिय० उक्क० संकिलि० उक० वट्ट० । सादा०-देवग०-पंचिंदि०वेउवि०--तेजा०-क०--समचदु०-वेउवि अंगो०-पसत्थवण्ण०४-देवाणु०-अगु०३पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ०-णिमि०-तित्थय०-उच्चा० उक्क० कस्स० ? अण्ण. दुगदियस्स सम्मा० सागा० सव्वविसु० उक्क० वट्ट० । णवरि तित्थ० मणुस० । इत्थि०पुरिस०-हस्स-रदि-तिण्णिजादि-चदुसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०-दुस्सर० उक्क० कस्स०? अण्ण तिरिक्ख० मणुस० सागा० तप्पा० संकि० उक्क० वट्ट०। तिरिक्वायु-मणुसायुमणुसगदि-ओरालि०-ओरालि०अंगो०-वजरि०-मणुसाणु०-आदाउज्जो०-उक्क० कस्स० ? अण्ण तिरिक्व० मणुस० सण्णि० मिच्छा० सागा. तप्पा०विसु० उक्क० वट्ट० । ४२०. वेउव्वियका० पंचणा०-णवदंसणा-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंच ४१८. पंचेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी और काययोगी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। औदारिककाययोगी जीवोंमें मनुष्यों के समान भङ्ग है और दो गतिके कोई जीव स्वामी हैं,ऐसा कहना चाहिए । ४१६. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्तवर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपवात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत, नियमसे उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त और उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाला अन्यतर पंचेन्द्रिय संज्ञी तियञ्च या मनुष्य उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। सातावेदनीय, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत, सर्वविशुद्ध और उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाला अन्यतर दो गतिका सम्यग्दृष्टि जीव उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्करप्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी मनुष्य है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, तीन जाति, चार संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कोन है ? साकार-जागृत, तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट और उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध करनेवाला अन्यतर तियश्च या मनुष्य उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रषभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप और उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत, तत्प्रायोग्य विशुद्ध और उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाला अन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। ४२०. वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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