SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामित्तपरूत्रणा १६३ तप्पा०विसु० । मणुसायु० उक्क० कस्स० ? अण्ण० सम्मादि० तप्पा०विसु० उक्क० वट्ट । एइंदि०-थावर० उक्क० कस्स० ? अण्ण० सोधम्मीसाणहडिमदेवस्स मिच्छादि. सागा० उक्क संकिलि० उक्क० वट्ट० । असंपत्त०-अप्पसत्थ०-दुस्सर० उक्क० कस्स० ? अण्ण० सहस्सारंत० मिच्छा० सागा० णिय० उक० वट्ट० । आदाव० उक्क० कस्स० ? अण्ण० ईसाणंतदेवस्स मिच्छा० तप्पा०विसु०। ४१५. भवण-वाणवें०-जोदिसि०-सोधम्मी० पंचणा०-णवदंसणा० असादा०मिच्छ०-सोलसक०--पंचणोक०--तिरिक्वगं०-एइंदि०-हुंड-अप्पसत्थवण्ण०४-तिरिक्वाणु०-उप०-थावर०-अथिरादिपंच-णीचा०-पंचंत० उक्क० कस्स० ? अण्ण० मिच्छादिहिस्स सागा० णिय० उक्क० वट्ट० । सेसं देवोघं । णवरि असंपत्त० अप्पसत्थ०दुस्सर० इत्थिभंगो । भवण-वाणवें०-जोदिसि० तित्थयरं णत्थि । सणक्कुमार याव सहस्सार त्ति विदियपुढविभंगो। आणदादि याव गवगेवज्जा त्ति सहस्सारभंगो । णवरि तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०-उज्जोव० वज्ज । स्वामी है। तिर्यश्चायु और उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला अन्यतर मिथ्यादृष्टि जीव उक्त दो प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? तप्रायोग्य विशुद्ध परिणामयुक्त और उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाला अन्यतर सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। एकेन्द्रियजाति और स्थावरके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? मिथ्यादृष्टि, साकार जागृत, उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त और उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाला अन्यतर सौधर्म और ऐशान व उससे नीचेका देव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और नियमसे उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाला अन्यतर सहस्रार कल्प तकका मिथ्यादृष्टि देव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। आतपके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला अन्यतर ईशान कल्प तकका मिथ्यादृष्टि देव आतपके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। ४१५. भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी तथा सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत, नियमसे उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त और उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाला अन्यतर मिथ्यादृष्टि उक्त देव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। शेष भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि असम्प्राप्तामृपाटिकसंहनन, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वर प्रकृतिका भङ्ग जिस प्रकार सामान्य देवोंमें स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामीकहा है. उस प्रकार है । तथा भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है। आनत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें सहस्रार कल्पके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यञ्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतको छोड़कर स्वामित्व कहना चाहिए। .. ता० प्रतौ तिरिक्ख च (?) आ. प्रतौ तिरिक्खं च इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy