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________________ सामित्तपरूवणा ४०८. पसत्थापसत्थपरूवणदाए पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक०-णिरयाउ०-दोगदि०-चदुजादि-पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्थवण्ण०४दोआणु०-उप०-अप्पसत्थवि०-थावरादि०४-अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंतरा० ८२ एदाओ पगदीओ अप्पसत्थाओ। सादावेद-तिण्णिआउ०-दोगदि०-पंचिंदि०-पंचसरीर०. समचदु०-तिण्णिअंगो०-वजरिस०--पसत्थवण्ण०४-दोआणु०--उप०-उस्सा०-आदाउओ०. पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ०-णिमि०-तित्थय० उच्चा०४२ एदाओ पगदीओ पसत्थाओ। __ एवं पसत्थापसत्थपरूवणा समत्ता । विशेषार्थ-ये जो बन्धकी अपेक्षा १२० प्रकृतियाँ बतलाई हैं उनके विपाकका आधार क्या है.इस दृष्टिको स्पष्ट करनेके लिए विपाकदेश अधिकार आया है। सब प्रक्रतियाँ भागों में। की गई हैं-जीवविपाकी, भवविपाकी, पुद्गलविपाकी और क्षेत्रविपाकी। जीवके ज्ञानादि गुणों और विविध नरकादि अवस्थाओंके हेतुरूपसे जिन प्रकृतियों का विपाक होता है वे जीवविपाकी प्रकृतियाँ हैं। नरक-भव आदिके हेतुरूपसे जिनका विपाक होता है,वे भवविपाकी प्रकृतियाँ हैं। शरीर, वचन और मनके कारणरूप पुद्गलोंको जीवोपयोगी बनाने में जिन प्रकृतियोंका विपाक होता है,वे पुद्गलविपाकी प्रकृतियाँ हैं और एक गतिसे दूसरी गतिमें जाते समय विग्रहगतिमें जिन प्रकृतियोंका विपाक होता है,वे क्षेत्रविपाकी प्रकृतियाँ हैं। यद्यपि रति और अरति आदि बहुत-सी जीवविपाकी प्रकृतियोंका स्त्री व कण्टक आदि के निमित्तसे विपाक देखा जाता है, पर इतने मात्रसे वे पुद्गल विपाकी नहीं कही जा सकतीं; क्योंकि ये स्त्री आदि पदार्थ रति आदिके विपाकमें नोकर्म अर्थात सहकारी कारण हैं, उनके फल नहीं। जब कि शरीरादि पुद्गलविपाकी प्रकृतियों के ही कार्य हैं, इसलिए रति आदि जीवविपाकी प्रकृतियोंसे पुद्गलविपाकी प्रकृतियोंमें और उनके फलमें महान् अन्तर है। ४०८. प्रशस्ताप्रशस्तकी प्ररूपणा करनेपर पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, नरकायु, दो गति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय ये व्यासी प्रकृतियाँ अप्रशस्त हैं। सातवेदनीय, तीन आयु, दो गति, पश्चेन्द्रियजाति, पाँच शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, तीन आङ्गोपाङ्ग, वऋषभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगरुलघ. उपघात. उच्छास. आतप. उद्योत. प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थकर और उच्चगोत्र ये ब्यालीस प्रकृतियाँ प्रशस्त हैं। विशेषार्थ-यहाँ प्रशस्ताशस्तप्ररूपणामें पाँच ज्ञानावरण आदि ८२ प्रकृतियों को अप्रशस्त और सातावेदनीय आदि ४२ प्रकृतियोंको प्रशस्त बतलाया है। सो इसका कारण यह है कि अप्रशस्त परिणामोंकी तीव्रतासे पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है और प्रशस्त परिणामोंकी उत्कृष्टतामें सातावेदनीय आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है। यहाँ प्रकृतियों में प्रशस्त और अप्रशस्तका भेद अनुभागकी दृष्टिसे ही किया गया है। तात्पर्य यह है कि जिन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध प्रशस्त परिणामोंसे और जघन्य अनुभागबन्ध अप्रशस्त परिणामोंसे होता है वे प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं। तथा जिन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबम्ध अप्रशस्त परिणामोंसे और जघन्य अनभागबन्ध प्रशस्त परिणामोंसे होता है व अप्रशस्त प्रकृतियाँ हैं। यद्यपि बन्ध प्रकृतियाँ कुल १२० हैं,पर यहाँ १२४ गिनाई है सो वर्णचतुष्कके प्रशस्त वर्णचतुष्क और अप्रशस्त वर्णचतुष्क ऐसा विभाग करके उनकी दोनों प्रकारकी प्रकृतियोंमें परिगणना की गई है, इसलिए कुल प्रकृतियाँ १२० होनेपर भी यहाँ दोनों मिलाकर १२४ प्रकृतियाँ परिगणित की गई हैं। इसप्रकार प्रशस्ताप्रशस्तप्ररूपणा समाप्त हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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