SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे असंजमपञ्चयं कसायपच्चयं जोगपञ्चयं । मिच्छ०-णस-णिरयाउग०-चदुजादि-हुंडअसंप०-णिरयाणु०-आदाव०-थावरादि०४ मिच्छत्तपञ्चयं । थीणगिद्धि०३-अट्ठकसा०. इत्थि०-तिरिक्खा०-मणुसायु०-तिरिक्ख-मणुसग०-ओरालि०-चदुसंठा०-ओरालि० अंगो०पंचसंघ०-दोआणु०-उज्जो०-अप्पसत्थ० भग-दुस्सर-अणादें-णीचा० मिच्छत्तपच्चयं असंजमपच्चयं । आहारदुर्ग संजमपच्चयं । तित्थयरं सम्मत्तपच्चयं । ४०७. विपाकदेसो णाम मदियावरणं जीवविपाका । चदु आउ० भवविपाका । पंचसरीर०-छस्संट्ठाण-तिण्णिअंगो०-छस्संघड०-पंचवण्ण०-दुगंध-पंचरस०-अट्ठप०अगुरु०-उप०-पर-आदाउजो०-पलेय०-साधार०-थिराथिर-सुभासुभ०-णिमिणं एदाओ पुग्गलविपोकाओ। चदुण्णं आणु० खेतविपाका । सेसाणं मदियावरणभंगो । कषायप्रत्यय होता है। सातावेदनीयका बन्ध मिथ्यात्वप्रत्यय, असंयमप्रत्यय, कषायप्रत्यय और योगप्रत्यय होता है। मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, चार जाति, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप और स्थावरादि चारका बन्ध मिथ्यात्वप्रत्यय होता है। स्त्यानगृद्धि तीन, आठ कषाय, स्त्रीवेद, तिर्यश्चायु, मनुष्यायु, तिर्यश्वगति, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, चार संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, दो भानुपूर्वी, उद्योत, अप्रस्त विहायोगति, दुभंग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका बन्ध मिथ्यात्वप्रत्यय और असंयमप्रत्यय होता है । आहारकद्विकका बन्ध संयमप्रत्यय होता है और तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध सम्यक्त्वप्रत्यय होता है। विशेषार्थ-मुख्य प्रत्यय चार हैं-मिथ्यात्व प्रत्यय, असंयमप्रत्यय, कषाय प्रत्यय और योग प्रत्यय । मिथ्यात्वप्रत्यय प्रथम गुणस्थानमें होता है। असंयमप्रत्यय चौथे गुणस्थानतक होता है। कषायप्रत्यय दशवें गुणस्थानतक होता है। और योगप्रत्यय तेरहवें गुणस्थानतक होता है। जिन प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यात्वगुणस्थानमें ही होता है. आगे नहीं होता, उनको यहाँ मिथ्यात्वप्रत्यय कहा है। जिनका बन्ध चौथे गुणस्थानतक होता है,आगे नहीं होता, उनको यहाँ मिथ्यात्वप्रत्यय और असंयमप्रत्यय कहा है। जिनका बन्ध दशवें गुणस्थानतक होता है, आगे नहीं होता, उनको यहाँ मिथ्यात्वप्रत्यय, असंयमप्रत्यय और कषायप्रत्यय कहा है। सातावेदनीयका बन्ध तेरहवें गुणस्थानतक होता है, इसलिये उसे मिथ्यात्वप्रत्यय, असंयमप्रत्यय, कषायप्रत्यय और योगप्रत्यय कहा है। इतनी विशेषता है कि आहारकद्विकका बन्ध संयमके सद्भावमें और तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध सम्यक्त्वके सद्भावमें होता है। इसलिये इनको तत्तत्प्रत्यय कहा है। यद्यपि मिथ्यात्वके रहते हुए असंयम, कषाय और योग अवश्य पाये जाते हैं। असंयमके सद्भावमें मिथ्यात्व पाया जाता है और नहीं भी पाया जाता है। पर कषाय और योग अवश्य पाये जाते हैं। कषायके सद्भावमें पूर्वके दो पाये भी जाते हैं और नहीं भी पाये जाते हैं। परन्तु योग अवश्य पाया जाता है और योगके सद्भावमें पहलेके तीन पाये भी जाते हैं और नहीं भी पाये जाते हैं। इसलिये यहाँ जिन प्रकृतियोंका मिथ्यात्वप्रत्यय बन्ध कहा है ,उनके बन्धके समय असंयम, कषाय और योग अवश्य होते हैं । मात्र मिथ्यात्वकी प्रधानता होनेसे उनका बन्ध मिथ्यात्वप्रत्यय कहा है। इसीप्रकार सर्वत्र जान लेना चाहिये। ४०७. विपाकदेशकी अपेक्षा मतिज्ञानावरण जीवविपाकी है। चार आयु भवविपाकी हैं। पाँच शरीर, छह संस्थान, तीन आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और निर्माण ये पुद्गल विपाकी प्रकृतियाँ हैं। चार आनुपूर्वी क्षेत्रविपाकी प्रकृतियाँ हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मतिज्ञानावरणके समान हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy