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________________ २ उत्तरपगदिअणुभागबंधो ३९७. एत्तो उत्तरपगदिअणुभागबंधो पुव्वं गमणिजी' । तत्थ इमाणि दुवे अणियोगहाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहा-णिसेगपरूवणा फद्धयपरूवणा च । णिसेयपरूवणा ३९८. णिसेगपरूवणदाए णाणावरणीय०४-दसणावरणीय०३-सादासाद.. चदुसंज०-णवणोक०२-चदुआउ० सवाओ णामपगदीओ णीचुच्चागोदं पंचंतराइगाणं देसघादिफद्दयाणं आदिवग्गणाए आदि कादूण णिसेगो। उवरिं अप्पडिसिद्धं । केवल. णाणा०-छदंसणा०-बारसकसायाणं सव्वधादिफद्धयाणं आदिवग्गणाए आदि का णिसेगो। उवरि अप्पडिसिद्धं । मिच्छत्तं यम्हि सम्मामिच्छत्तं णिदिदं तदोबत सव्वघादिफद्दयाणं आदिवग्गणाए आदि कादण णिसगो। उवरि अप्पडिसिद्धं । एवं णिसेगपरूवणा त्ति समत्तमणियोगद्दारं। २ उत्तरप्रकृति अनुभागबन्ध ३६७. इससे आगे उत्तरप्रकृति अनुभागबन्ध पहलेके समान जानना चाहिये । उसमें ये दो अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं। यथा-निषेकप्ररूपणा और स्पर्धकप्ररूपणा। निषेकप्ररूपणा ३६८. निषेकप्ररूपणाकी अपेक्षा चार ज्ञानावरणीय, तीन दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार संज्वलन, नौ नोकषाय, चार आयु, सब नामकर्मकी प्रकृतियाँ, नीचगोत्र, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनके देशघाति स्पर्धकोंकी आदि वर्गणासे लेकर निषेक होते हैं । और वे आगे बराबर चले गये हैं। केवलज्ञानावरण, छह दर्शनावरण और बारह कषायोंके सर्वघातिस्पर्धकोंकी आदि वर्गणासे लेकर निषेक होते हैं। और वे अन्ततक बराबर चले गये हैं। मिथ्यात्वके जहाँपर सम्यग्मिथ्यात्व समाप्त होता है, वहाँ से आगे सर्वघाति स्पर्धकोंकी प्रथम वर्गणासे लेकर निषेक होते हैं और वे आगे बराबर चले गये हैं। विशेषार्थ-कर्मसिद्धान्तके नियमानुसार प्रत्येक कर्मकी निषेक रचना जिस कर्मकी जितनी स्थिति होती है, उसके अन्ततक पाई जाती है। साधारणतः कर्म दो भागों में विभक्त हैं-सर्वघाति और देशघाति । यह विभाग अनुभागबन्धकी मुख्यतासे किया गया है। इसलिये इन दोनों प्रकारके कर्मोंके निषेक प्रथम समयसे लेकर अन्ततक पाये जाते हैं। मिथ्यात्वकर्मको छोड़कर शेष जितने कर्म हैं,उन सबकी यह व्यवस्था जाननी चाहिये । मात्र मिथ्यात्वकर्मकी व्यवस्थामें कुछ अन्तर उपशमसम्यक्त्वरूप परिणामोक कारण जब मिथ्यास्वके तीन विभाग हो जाते है,तब अनुभागकी अपेक्षा लताभाग और दारुका कुछ भाग सम्यक्त्वमोहनीयको प्राप्त होता है। इसके आगे दारुका कुछ भाग सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीयको प्राप्त होता है। और शेष अनुभाग मिथ्यात्वमोहनीयको प्राप्त होता है। इसी कारणसे यहाँपर जहाँ सम्यग्मिथ्यात्वका अनुभाग समाप्त होता है, उससे आगेका भाग मिथ्यात्व मोहनीयका कहा है। इसप्रकार निषेकप्ररूपणा अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। ता. प्रती गमण्णिजं इति पाठः । २ ता. प्रतौ णवरि णोकसा • इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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