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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ३९६. अप्पाबहुगेँ ति सव्वत्थोवा उक्कस्सएं अज्झवसाणट्ठाणे जीवा । जहण्णए अज्झवसाणट्ठाणे जीवा असं०गुणा । कंडए जीवा तत्तिया चेव । यवमज्झे जीवा असं०गुणा | कंडयस्स उवरिं जीवा असं० गुणा । यवमज्झस्स उवरिं कंडयस्स हेट्ठदो जीवा असं ०‍ ० गुणा | कंडयस्स उवरिं यवमज्झस्स हेट्ठदो जीवा तत्तिया चेव । यवमज्झस्स उवरिं जीवा विसे ० | कंडयस्स हेट्ठदो जीवा विसे० । कंडयस्स उवरिं जीवा विसे० । सब्वेसु ट्ठाणेसु जीवा विसेसाधिया । १८० एवं जीवसमुदाहारे ति समत्तमणियोगद्दाराणि । एवं मूलपगदिअणुभागबंधो समत्तो । समयिक स्थानों का स्पर्शनकाल विशेष अधिक कहा है। और इससे सब स्थानोंका अर्थात् ४, ५, ६, ७, ८, ७, ६, ५, ४, ३ और २ समयिक स्थानोंका स्पर्शनकाल विशेष अधिक कहा है । Jain Education International ३६६. अल्पबहुत्व की अपेक्षा उत्कृष्ट अध्यवसानस्थानमें जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे जघन्य अध्यवसानस्थानमें जीव असंख्यातगुणे हैं । काण्डकके जीव उतने ही हैं। इनसे यवमध्यके जी असंख्यातगुणे हैं । इनसे काण्डकके ऊपर जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे यवमध्यके ऊपर और काण्डकके नीचे जीव असंख्यातगुणे हैं । काण्डकके ऊपर और यवमध्यके नीचे जीव उतने ही हैं । इनसे यवमध्यके ऊपर जीव विशेष अधिक हैं। इनसे काण्डकके नीचे जीव विशेष अधिक हैं। इनसे काण्डकके ऊपर जीव विशेष अधिक हैं । इनसे सब स्थानों में जीव विशेष अधिक हैं। - इस प्रकार जीवसमुदाहार अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । इस प्रकार मूलप्रकृति स्थितिबन्ध समाप्त हुआ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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