SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे फदयपरूवणा ३९९. फहयपरूवणदाए अणंताणताणं अविभागपलिच्छेदाणं समुदयसमागमेण एगो वग्गो भवदि । एवं मूलपगदिभंगो कादयो । ४००. एदेण अट्ठपदेण तत्थ इमाणि चदुवीसमणियोगद्दाराणि-सण्णा सन्चबंधो णोसबबंधो एवं याव अप्पाबहुगें त्ति । भुजगार' पदणिक्खेओ वडिबंधो अज्झवसाणसमुदाहारो जीवसमुदाहार त्ति ।। १सण्णा ४०१. तत्थ वि सण्णा दुविधा'-धादिसण्णा हाणतण्णा च। घादिसण्णा णाणवर०४दसणा०३ ३-चदुसंज०-णवणोक०-पंचंतरा० उकस्सअणुभागबंधो सव्वघादी । अणुकस्सअणुभागबंधो सबघादी वा देसघादी वा। जहण्णो अणुभागबंधो देसघादी । अजहण्णओ अणुभागबंधो देसघादी वा सव्वघादी वा । केवलणाणा०-छदंसणा-मिच्छत्तबारसक० उकस्स-अणुक्कस्स-जह०-अजह ० अणुभागबंधी सव्वघादी । सेसाणं सादासाद० चदुआउ० सवाओ णामपगदीओणीचुच्चा० उक०-अणु०-जह ०-अज० अणुभाग० अघादी घादिपडिभागो। स्पर्द्धकप्ररूपणा ३६६. स्पर्धकप्ररूपणाकी अपेक्षा अनन्तानन्त अविभागप्रतिच्छेदोंके समुदायसे एक वर्ग निष्पन्न होता है। इसीप्रकार मूलप्रकृतिबन्धके अनुसार कथन करना चाहिये । ४००. इस अर्थपदके अनुसार वहाँपर ये चौवीस अनुयोगद्वार होते हैं-संज्ञा, सर्वबन्ध और नोसर्ववन्धसे लेकर अल्पबहुत्व तक। भुजगारबन्ध, पदनिक्षेप, घृद्धिवन्ध, अध्यवसान समुदाहार और जीवसमुदाहार । १ संज्ञा ४०२. उसमें भी संज्ञा दो प्रकारकी है-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा। घातिसंज्ञाको अपेक्षा चार ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, चार संज्वलन, नौ नोकषाय और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वघाति है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वघाति भी होता है और देशघाति भी होता है। जघन्य अनुभागबन्ध देशघाति है। अजघन्य अनुभागवन्ध सर्वघाति भी होता है और देशघाति भी होता है। केवलज्ञानावरण, छह दशनावरण, मिथ्यात्व और बारह कषाय इनका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध सर्ववाति होता है। शेष सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार आयु, सब नामकर्मकी प्रकृतियाँ, नीचगोत्र और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभागवन्ध घातिके प्रतिभागके अनुसार अधाति होता है। विशेषार्थ-यह हम पहले कह आये हैं कि अनुभागबन्ध दो प्रकारका होता है-घाति और अघाति । जो जीवके भनुजीवी गुणोंका घात करनेवाला अनुभागबन्ध होता है,उसे घाति कहते हैं। तथा जो जीवके प्रतिजीवी गुणोंका घात करनेवाला अनुभागबन्ध होता है, उसे अघाति कहते हैं। , ता. प्रतौ भुजगारा• इति पाठः। २ ता. प्रतौ वि दुस्सण्णा ( सण्णा) दुविधा इति पास। ता. भा. प्रत्योः दसणा. घसंज.इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy