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________________ १७८ महाबंधे अणुभागधंधाहियारे __ ३६२. वडिपरूवणदाए तस्थ इमाणि दुवे अणियोगद्दाराणि-अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा च । अणंतरोवणिधाए जहण्णए' अज्झवसाणट्ठाणे जीवा थोवा । विदिए अज्झवसाणठाणे जीवा विसेसाहिया। तदिए अज्झवसाणट्ठाणे जीवा विसे० । एवं विसेसाधिया [विसेसाधिया ] याव यवमज्झं । तेण परं विसेसहीणा । एवं विसेसहीणा विसेसहीणा याव उक्कस्सयं' अज्झवसाणट्ठाणं त्ति । ३६३. परंपरोवणिधाए जहण्णअज्झवसाणट्ठाणेहिंतो तदो असंखेंज्जा लोगा गंतूण दुगुणवड्डिदा । एवं दुगुणवड्डिदा दुगुणवड्डिदा याव यवमझं । तेण परं असंखेंज्जलोगं गंतूण दुगुणहीणा। एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा याव उकस्सयं अज्झवसाणट्ठाणं चि । एयजीवज्झवसाणदुगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतरं असंखेज्जा लोगा। णाणाजीवज्ञवसाणदुगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतराणि आवलि.' असं० । णाणाजीवज्झवसाणदुगुणवड्वि-हाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि । एयजीवज्झवसाणदुगुणवड्डि हाणिट्ठाणंतराणि असंखेंज्जगुणाणि । विशेषार्थ-इन सब अनुभागवन्धस्थानों में यह काल स्थावर जीवोंकी मुख्यतासे बतलाया गया है। त्रस जीवोंकी अपेक्षा विचार करनेपर एक-एक स्थानमें त्रस जीवोंके रहनेका जघन् समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि यद्यपि एक स्थानमें एक जीवके रहनेका उत्कृष्ट काल आठ समय ही है, पर निरन्तर क्रमसे एकके बाद दूसरा जीव उस स्थानको प्राप्त करता रहे,तो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक एक स्थानमें त्रस जीवोंका सद्भाव देखा जाता है। ३१२. वृद्धिप्ररूपणाकी अपेक्षा उसमें ये दो अनुयोगद्वार होते हैं-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा जघन्य अध्यवसानस्थानमें जीव सबसे स्तोक हैं। इससे दूसरे अध्यवसानस्थानमें जीव विशेष अधिक हैं। इससे तीसरे अध्यवसानस्थानमें जीव विशेष अधिक हैं। इसीप्रकार यवमध्यके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर प्रत्येक स्थानमें जीव विशेष अधिक विशेष अधिक हैं। तथा उससे आगे उत्कृष्ट अध्यवसानस्थानके प्राप्त होनेतक प्रत्येक स्थानमें जीव उत्तरोत्तर विशेष हीन विशेष हीन हैं। विशेषार्थ-जघन्य अनुभागवन्धाध्यवसानस्थान अतिविशुद्धिके बिना हो नहीं सकता और अतिविशुद्धिको लिए हुए जीव बहुत थोड़े होते हैं, इसलिए जघन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानमें सबसे थोड़े जीव कहे हैं । आगे यवमध्यतक वे विशेष अधिकके क्रमसे बढ़ते जाते हैं और यवमध्यके बाद वे विशेष अधिकके क्रमसे हीन-हीन होते जाते हैं। ३६३. परम्परोपनिधाकी अपेक्षा जो जघन्य अध्यवसानस्थान हैं, उससे असंख्यात नोक प्रमाण स्थान जाकर वे जीव दूनी वृद्धिको प्राप्त होते हैं। इसीप्रकार यवमध्यतक दूने दूने होते गये हैं। उससे आगे असंख्यात लोकप्रमाण स्थान जाकर वे दुने हीन होते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट अध्यवसानस्थानके प्राप्त होनेतक वे दूने-दूने हीन होते जाते हैं। एक जीव अध्यवसानद्विगुणवृद्धिद्विगुणहानिस्थानान्तर असंख्यात लोकप्रमाण हैं। नानाजीव अध्यवसानद्विगुणवृद्धि-द्विगुणहानिस्थानान्तर भावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। नानाजीव अध्यवसानद्विगुणवृद्धि-द्विगुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं। इनसे एक जीव अध्यवसानद्विगुणवृद्धि-द्विगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। १.ता.भा. प्रत्योः जहणि इति पाठः। २. ता. आ. प्रत्योः उकस्सियं इति पाठः। ३. ता. प्रतीभवहिदि आ० प्रती अवटि.इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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