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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ३८६ . परंपरोवणिधार सव्वत्थोवाणि अनंतभागव्महियाणि द्वाणाणि । असंखेज्जभागग्भहि० असं ० गु० | संखेज्जभागब्भहि ० संखेज्जगु० । [ संखेज्जगुणब्भहियाणि द्वाणाणि संखेज्जगुणाणि । असंखेज्जगुणन्भहियाणि द्वाणाणि असंखेज्जगुणाणि । अनंतगुणब्भहियाणि द्वाणाणि असंखेज्जगुणाणि । १७६ विशेषार्थ - यद्यपि यह अल्पबहुत्व सब स्थानोंका आश्रय लेकर स्थित है, तथापि यहाँपर एक स्थानके आश्रय से लेकर अल्पबहुत्वका विचार करते हैं, क्योंकि इससे पूरे स्थानोंके आश्रयसे अल्पबहुत्व के विचार करनेमें सुगमता होगी। एक स्थानमें अनन्तगुणवृद्धिस्थान एक होता है, इसलिए वह सबसे स्तोक कहा है। इससे असंख्यातगुणवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे होते हैं। क्योंकि यहाँ पर गुणकारका प्रमाण एक काण्डक है। इनसे संख्यातगुणवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे इसलिए होते हैं, क्योंकि असंख्यात गुणवृद्धिस्थानों को एक अधिक काण्डकसे गुणित करने पर इन स्थानों की उत्पत्ति होती है। इनसे संख्यातभागवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे इसलिए होते हैं, क्योंकि संख्यातगुणवृद्धिस्थानों को एक अधिक काण्डकसे गुणित करने पर इन स्थानों की उत्पत्ति होती है। इनसे असंख्यात भागवद्धि स्थान असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि एक स्थान में संख्यातभागवृद्धिरूप स्थानोंको एक अधिक काण्डकसे गुणित करने पर इन स्थानों की उत्पत्ति होती है। तथा इनसे अनन्तभागवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि एक स्थानमें जितने असंख्यात भागवृद्धिरूप स्थान हैं, उन्हें एक अधिक काण्डकसे गुणित पर इन स्थानों की उत्पत्ति होती है । यह एक स्थानकी अपेक्षा अल्पबहुत्व है । विचार कर इसी प्रकार सब स्थानों की अपेक्षा अल्पबहुत्व घटित कर लेना चाहिए । ३८६. परम्परोपनिधाकी अपेक्षा अनन्तभागवृद्धिस्थान सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यात - भागवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यात भागवृद्धिस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धिस्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यात गुणवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं और इनसे अनन्त. गुणवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं । विशेषार्थ - यहाँ उक्त छह वृद्धियों में परम्परासे कौन वृद्धि कितनी गुणी है, इस बातका विचार किया गया है। तात्पर्य यह है कि वृद्धियों की अनन्तभागवृद्धि आदि संज्ञा अनन्तर पूर्वस्थानकी अपेक्षा है | किन्तु परम्परासे इन वृद्धियों को देखने पर कौन वृद्धिस्थान किस वृद्धिस्थानोंसे कितने गुणे हैं, इस बातका विचार इस प्ररूपणा में किया गया है। यह तो स्पष्ट ही है कि षट्स्थानप्ररूपणा में अनन्तभागवृद्धिस्थान काण्डकप्रमाण होनेपर असंख्यात भागवृद्धिस्थान उपलब्ध होता है । यतः ये अनन्त वृद्धिस्थान काण्डकमात्र हैं अतः वे सबसे थोड़े कहे हैं। इसके बाद प्रथम असंख्यातभागवृद्धिस्थान से लेकर प्रथम संख्यात भागवृद्धिस्थानके प्राप्त होने तक मध्य में जितने भी अनन्तभागवृद्धिस्थान और असंख्यात भागवृद्धिस्थान आये हैं, वे सब परम्पराते असंख्यात भागवृद्धिरूप ही हैं । यतः ये स्थान काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थानोंसे एक अधिक काण्डक गुणित हैं, अतः ये असंख्यातगुणे कहे हैं। इसके बाद प्रथम संख्यात भागवृद्धिस्थान से लेकर प्रथम संख्यातगुणवद्धिस्थानके प्राप्त होनेके पूर्व ही बीचके अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि और संख्यातभागवृद्धिरूप सब स्थानोंके उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण जानेपर साधिक दुगुनी वृद्धि हो जाती है । यतः ये बीच संख्यात भागवृद्धिरूप स्थान उत्कृष्ट संख्यात से कुछ न्यून ही है, अतः यहां असंख्यात भागवृद्धिस्थानों से संख्यात भागवृद्धिस्थान संख्यातगुणे कहे हैं। इसके आगे ये संख्यातगुण वृद्धिस्थान'चालू होकर जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदों का जितना प्रमाण हो, उतने बार जाकर प्रथम असंख्यातगुणवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है । अब यदि यहाँ उत्पन्न हुए प्रथम असंख्यात गुणवृद्धिस्थानको छोड़कर उसके पूर्व संख्यातभागवृद्धिरूप अन्तिम स्थानसे लेकर यहाँ तकके इन बीच स्थानोंका संकलन किया जाय, तो वे संख्यांतभागवद्भिस्थानोंसे संख्यातगुणे ही उपलब्ध होते हैं। अतः यहाँ संख्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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