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________________ अझवसाणसमुदाहारे अप्पाबहुगं संखेजभागवड्डि-हाणी संखेंजगण-वड्डिहाणी असंखेंजगुणवडि-हाणी अणंतगुणवडिहाणी । पंचवड्डी पंचहाणी जह. एग०, उक्क० आवलि. असंखें । अणंतगुणवड्डी अणंतगुणहाणी जह० एगसमयं, उक० अंतोमुहुत्तं। ३८३. जवमज्झपरूवणदाए अणंतगुणवड्डी अणंतगुणहाणी च यवमझं । ३८४. पज्जवसाणपरूवणदार अणंतगुणस्स उवरि अणंतगुणं भविस्सदि त्ति पज्जवसाणं। ३८५. अप्पाबहुगे त्ति । तत्य इमाणि दुवे अणियोगद्दाराणि-अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा च । अणंतरोवणिधाए सव्वत्थोवाणि अणंतगुणब्महियाणि ट्ठाणाणि । असंखेंजगुणब्भहियाणि द्वाणाणि असंखेंज्जगणाणि । संखेंज्जगुणभ० असं गुणाणि । संखेज्जभागमहियाणि हाणाणि असं०गु० । असंखेज्जभागन्भ० असं०गु०। अणंतभागभ० असंखेज्जगुणाणि। भागवृद्धि हानि, संख्यातगुणवृद्धि-हानि, असंख्यात गुणवृद्धि हानि, और अनन्तगणवृद्धि-हानि होती है। इनमें से पाँच वृद्धियों और पाँच हानियोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल प्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल विशेषार्थ-पहले एक-एक स्थानमें षट्गुणीवृद्धिका निर्देश कर आये हैं। हानियाँ भी उतनी ही होती हैं। यहाँ इन हानियों और वृद्धियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल कितना है, यह बतलाया गया है। ३८३. यवमध्यप्ररूपणाकी अपेक्षा अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि यवमध्य है। विशेषार्थ-यवमध्य दो प्रकारका है-कालयवमध्य और जीवयवमध्य । उनमेंसे यह कालयवमध्य है। यद्यपि आठ समयवाले अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे थोड़े हैं, इत्यादि कथनसे ही कालयवमध्य ज्ञात हो जाता है; पर उसमे भी इस वृद्धि और हानिसे यवमध्यका प्रारम्भ और समाप्ति होती है ,यह बतलाने के लिये यवमध्यप्ररूपणा अलगसे की गई है। अनन्तगुणवृद्धिसे यवमध्यका प्रारम्भ होता है और अनन्तगुणहानिप्से उसकी समाप्ति होती है,यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि यवमध्यके नीचे और ऊपर चार, पाँच, छह और सातसमय प्रायोग्य स्थान तथा ऊपर जो तीन और दोसमय प्रायोग्यस्थान हैं, इन सबका प्रारम्भ अनन्तगुणवृद्धिसे होता है और उनकी समाप्ति अनन्तगुणहानिसे होती है। ३८४. पर्यवसान प्ररूपणाकी अपेक्षा अनन्तगुणवृद्धि के ऊपर अतन्तगुणवृद्धि ( नहीं) होगी यह पर्यवसान है। विशेषार्थ-सूक्ष्म एकेन्द्रियके जघन्य स्थानसे लेकर पहले जितने स्थान कह आये हैं, उनमें प्रत्येक स्थानका आदि अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है। पुनः उसपर पूर्वोक्त विधिसे पाँच वृद्धियाँ होकर उस स्थानका अन्त अनन्तभागवृद्धिरूप होता है। यही उस स्थानका पर्यवसान है, इसलिए एक स्थानमें अनन्तगुणवृद्धि के ऊपर पुनः अनन्तगुणवृद्धि नहीं प्राप्त होती,यह इस प्ररूपणाका तात्पर्य है। ३.५. अल्पबहुत्वका अधिकार है। उसमें ये दो अनुयोगद्वार होते हैं-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा अनन्तगुणवृद्धि स्थान सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातगुणवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे अनन्तभागवृद्धिस्थान असंख्यातगुरणे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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