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________________ महाबन्ध बन्ध लिया जाता है और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध में ओघ व आदेश से उत्कृष्ट के सिवा शेष जघन्य आदि सब अनुभागबन्ध लिया जाता है। इसी प्रकार जघन्य अनुभागबन्ध में ओघ व आदेश से सबसे कम अनुभागबन्ध विवक्षित है और अजघन्य अनुभागबन्ध में ओघ व आदेश से जघन्य के सिवा उत्कृष्ट तक का सब अनुभागबन्ध लिया जाता है । सादि-अनादि- ध्रुव-अध्रुवबन्ध - इन चारों अनुयोगद्वारों में जो उत्कृष्ट आदि चार प्रकार का अनुभाग बन्ध बतलाया है, वह सादि-आदि किस रूप है, इस बात का विचार किया जाता है। इसका विशेष खुलासा हमने विशेषार्थ द्वारा इस प्रकरण के समय किया ही है, इसलिए वहाँ से जान लेना चाहिए। संक्षेप में उसकी संदृष्टि इस प्रकार है कर्म १८ अजघन्य जघन्य सादि-अध्रुव सादि आदि चार रूप सादि-अध्रुव सादि आदि चार रूप सादि- आध्रुव सादि-अध्रुव सादि-अध्रुव सादि-अध्रुव सादि आदि चार रूप सादि-अध्रुव सादि-अध्रुव सादि-अध्रुव सादि आदि चार रूप सादि-अध्रुव सादि-अध्रुव सादि आदि चार रूप सादि आदि चार रूप सादि-अध्रुव सादि-अध्रुव सादि-अध्रुव सादि आदि चार रूप स्वामित्व - यहाँ स्वामित्व को ठीक तरह से समझने के लिए इस अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में तीन अन्य अनुयोगद्वारों की स्वतन्त्र रूप से विवेचना की गई है। वे तीन अनुयोगद्वार हैं- प्रत्ययानुगम, विपाकदेश और प्रशस्ताप्रशस्तप्ररूपणा । कर्मबन्ध के प्रत्यय (कारण) चार हैं- मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग । कहीं-कहीं प्रमाद के साथ ये पाँच भी कहे गये हैं, पर प्रमाद का अन्तर्भाव असंयम और कषाय में मुख्य रूप से हो जाता है, इसलिए यहाँ ये चार ही कहे गये हैं । इन चारों में से किस के निमित्त से किस कर्म का बन्ध होता है, इसका विचार प्रत्ययानुगम में किया जाता है। यहाँ इस बात का निर्देश करना आवश्यक प्रतीत है कि इन कारणों के रहने पर यथासम्भव विवक्षित कर्म के अनुभागबन्ध में न्यूनाधिकता आती है, इसलिए अनुभागबन्ध के स्वामित्व का निर्देश करते समय इस अनुयोगद्वार का निर्देश किया 1 उत्कृष्ट ज्ञानावरण सादि-अध्रुव दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय आयु नाम गोत्र अन्तराय सादि-अध्रुव सादि-अध्रुव सादि-अध्रुव सादि-अध्रुव सादि-अध्रुव सादि-अध्रुव Jain Education International - अनुत्कृष्ट सादि-अध्रुव सादि -आध्रुव सादि आदि चार रूप बन्ध के समय कर्म का जो अनुभाग प्राप्त होता है, उसका विपाक जीव में, पुद्गल में या अन्यत्र कहाँ होता है, इसका विचार विपाक देश में किया गया है। तदनुसार कर्मों के चार भेद होते हैं- जीवविपाकी, भवविपाकी, पुद्गलविपाकी ओर क्षेत्रविपाकी । चार घाति कर्म, वेदनीय और गोत्रकर्म ये छह कर्म जीवविपाकी हैं, क्योंकि इनके उदय से जीव में अज्ञान, अदर्शन, सुख, दुःख, मिथ्यात्व, राग, द्वेष, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, उच्च, नीच, अदान, अलाभ, अभोग, अनुपभोग और अवीर्यरूप परिणामों की उत्पत्ति होती है। आयुकर्म भवविपाकी है, क्योंकि नारक आदि भवों में इसका विपाक देखा जाता है। नामकर्म जीवविपाकी, पुद्गलविपाकी और क्षेत्रविपाकी तीनों रूप है, क्योंकि एक तो इसके उदय से नारक आदि अवस्थाओं की और औदारिक आदि शरीरों की प्राप्ति होती है । दूसरे विग्रहगति में शरीर ग्रहण के पूर्व जीव के प्रदेशों का आकार पूर्व शरीर के समान बनाये रखना इसका कार्य है । यद्यपि उत्तर काल में टीकाकारों ने वेदनीय कर्म को पुद्गलविपाकी मानकर बाह्य सामग्री For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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