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________________ वडिबंधे जाणाजीवहि भगविचया १६३ जह० एगस०, उ० सत्त० अट्ठसम०। कम्मइ० अणाहार० सत्तण्णं क. छवड्डी छहाणी जह० एगस०, उक्क० वेसम० : अवट्टि० जह० एग०, उक० तिण्णिसम० । अवगद० सत्तणं क० अणंतगुणवड्डि-हाणी जह० एग०, उक० अंतो० । एवं सुहुमसंप० छण्णं क० । सेसाणं णिरयभंगो । एवं कालं समत्तं । अंतरं ___३५९, अंतराणुगमेण अढण्णं क० अवत्त० भुज० अवत्त भंगो। अट्ठण्णं कम्माणं अवट्ठि० पंचवड्डी पंचहाणी भुज० अवढि भंगो। अणंतगुणवड्डि-हाणी सव्वस्थ भुजगारबंधगे भुज०-अप्पदराणं अंतरं कादव्वं । एवं याव अणाहारग त्ति । एवं अंतरं समत्तं । ___णाणाजीवेहि भंगविचयो ३६०. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण छवडि-छहाणि-अवडिदबंधगा णियमा अस्थि । सिया एदे य अवत्तगे य । सिया एदे य अवत्तव्वगा य। आउ० सम्वपदा णियमा अस्थि । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं सव्वसुहुमाणं एइंदिय-पुढ०-आउ० तेउ०. वाउ०-वणप्फदि-णियोद०-कायजोगि-ओरालि०-ओरालियमि०-कम्मइ०-णवंस०-कोधादि० अवक्तव्यपद नहीं है। अवस्थितपदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट का सात आठ समय है। कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सात कर्मोंकी छह वृद्धि और छह हानियोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अवस्थितपदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल तीन समय है। अपगतवेदी जीवोंमें सातकर्मोंकी अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत जीवोंमें छह कर्मोंकी अपेक्षा काल जानना चाहिए। शेष मार्गणाओंका भंग नारकियोंके समान है। इस प्रकार काल समाप्त हुआ। अन्तर ३५६. अन्तरानुगमकी अपेक्षा आठ कर्मों के अवक्तव्यपदका भंग भुजगारबन्धके अवक्तव्यपदके समान है। आठ कर्मों के अवस्थितपद, पाँच वृद्धि और पाँच हानियोंका अन्तर भुजगारवन्धके अवस्थितपदके समान है । अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका अन्तरकाल सर्वत्र भुजगारपदका बन्ध करनेवाले जीवोंमें भुजगारबन्धके व अल्पतरपदके अन्तरकालके समान करना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इस प्रकार अन्तरकाल समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय ३६०. नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचयानुगमसे छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितपद. के बन्धक जीव नियमसे हैं । कदाचित् ये जीव हैं और एक अवक्तव्य पदका बन्धक जीव है। कदाचित् ये जीव है और नाना अवक्तव्यपदके बन्धक जीव हैं। आयुकर्मके सब पदोंके बन्धक जीव नियम से है। इसी प्रकार आंघ के समान सामान्य तियच, सब सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, पृथिवी जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, निगोद, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्स्यज्ञानी, श्रता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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