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________________ १६२ महावंधे अणुभागबंधाहियारे अवत्तभंगो कादव्वो। छवड्वी छहाणी अवढि० कस्स० ? अण्ण । एवं ओषभंगो मणुस०३-पंचिंदि०-तस०२-पंचमण-पंचवचि० कायजोगि-ओरालि०-लोभ० मोह. आमि०-सुद०-ओधि०-मणपज०-संजद०-चक्खुदं०-अचक्खुदं०-ओधिदं०-सुक्क०-भवसि०सम्मादि० खइग०-उवसम० सण्णि-आहारग ति । णेरइगेसु सत्तण्णं क० एवं चेव । णवरि अवत्त० णस्थि । कम्मइ० अणाहार० सत्तण्णं क० छवड्डी छहाणी अवढि० कस्स० ? अण्ण । एवं वेउब्वियमि०-सम्मामि । अवगद०सत्तण्णं क०अणंतगुणवाड्डिहाणी कस्स०? अण्ण० । एवं सुहुमसंप० छण्णं कम्माणं । सेसाणं णिरयभंगो । एवं सामित्तं समत्तं ।। कालो ३५७. कालाणुगमेण अढण्णं कम्माणं पंचवड्डी पंचहाणी केवचिरं० ? जह० एग०, उक्क० आवलि० असंखेंज०' । अणंतगुणवड्डि-हाणी जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्टि० जह० एग०, उक्क सत्तट्टसम० । आउ० अवट्टि० जह० एग०, उक्क० सत्तसमया। अवत्त० एग० । एवं अट्टण्णं कम्माणं चोदसणं पदा जम्हि अस्थि तम्हि एस कालो० । ३५८. णिरएसु सत्तणं एवं चेव । णवरि सत्तणं क० अवत्तव्यं णस्थि । अवढि० वृद्धि, छह हानि और अवस्थितपदका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव इनका स्वामी है। इसी प्रकार घोष के समान मनुष्यत्रिक, पंचेन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काय. योगी, लोभकषायवाले जीवोंमें मोहनीयकर्म, आभिनिवोधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनः पर्ययज्ञानी, संयत, चक्षदर्शनी, अचक्षुदर्शनी,अवधिदर्शनी,शुक्ललेश्यावाले,भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यदृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। नारकियोंमें सात कर्मोंका भंग इसी प्रकार है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यपद नहीं है। कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सात कर्मोंकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितपदका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में जानना चाहिए। अपगतवेदी जीवों में सात कोंकी अनन्तगणवृद्धि और अनन्तगणहानिका स्वामी कौन है अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें छह कर्मोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। शेष मार्गणाओंमें नारकियोंके समान भंग है। इस प्रकार स्वामित्व समान हुआ। काल ३५७. कालानुगमकी अपेक्षा आठ कर्मों की पाँच वृद्धि और पाँच हानिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल । अवस्थितपदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात-आठ समय है। आयुकर्मके अवस्थितपदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात समय है। अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार आठों कर्मों के चौदह पद जिन मार्गणाओं में हैं, उनमें यही काल जानना चाहिए। ३५८. नारकियोंमें सातों कर्मोंका इसी प्रकार काल है। इतनी विशेषता है कि सात कर्मों का १ ता० प्रती आवडि. असंखेजदि (?) आ० प्रतौ भवटि० असंखेज० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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