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वडिबंधो ३५३. वडिचंधे त्ति तत्थ इमाणि तेरस अणियोगदाराणि-समुकित्तणा याव अप्पाबहुगे ति १३ ।
समुक्कित्तणा ३५४. समुक्त्तिणाए अढणं ० अत्थि छबड्डी छहाणी । अवडि०' अवसव्व० । एवं मणुस०-३-पंचिंदि० .तस० २-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालि०-लोम० मोह० आमि०-सुद०-ओधि०-मणप०-संजद०-चक्खुदं०-अचक्खुदं०-ओधिदं-सुक.. भवसि०-सम्मादि०३-खइग०-उवसम०-सण्णि-आहारग ति।
३५५. अवगद०-सुहुमसंप० सत्तण्णं क० छण्णं० अस्थि अणंतगु०वडि-हाणि. अवत्त । सुहुमसंप० अवत्त० पत्थि । सेसाणं अस्थि छवड्डी छहाणी अवट्ठाणं । आउ० ओघं । एवं समुकित्तणा समत्ता ।
सामित्तं ३५६. सामित्ताणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० अढणं पि अवत्त० भुज.
वृद्धिवन्ध ___३५३. वृद्धिबन्धका प्रकरण है। उसमें ये तेरह अनुयोगद्वार होते हैं-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक ५३।
समुत्कीर्तना ३५४. समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा आठों कर्मों के बन्धक जीवोंकी छह वृद्धि, छह हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपद होते हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्रिक, पंचेन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँचमनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी. लोभकषायवाले जीवों में मोहनीया आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्लालेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए।
३५५. अपगतवेदी और सूक्ष्मसांपरायसंयत जीवों में क्रमसे सात कर्मों और छह कर्मों के बन्धक जीवोंकी अनन्तगुणवृद्धि, अनन्त गुणहानि और अवक्तव्यपद होते हैं। इतनी विशेषता है कि सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों में अवक्तव्यपद नहीं है। शेष सब मार्गणाओंमें छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थान पद होते हैं। आयुकर्मका भंग ओघके समान है। इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई।
__स्वामित्व ३५६. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और मादेश। ओघसे आठों ही कर्मा के अवक्तव्यपदका भंग भुजगारपदके प्रवक्तव्यपदके समान करना चाहिए । छह
१ ता० प्रती भवट० इति पाठः । २ ता. प्रतौ मणुस. १३ (३) पचि० इति पाठः । ३ ता. आ. प्रत्योः सम्ममि० इति पाठः ।
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