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________________ महाबंध अणुभागबंधाहियारे ● ४-मदिव १० सुद० - असंज० अचक्खु ० - तिष्णिले ० - भवसि ० - अब्भवसि ० - मिच्छा० - असण्णिआहार - अणाहारग ति । O १६४ ३६१. णिरएस सत्तणं क० अणंतगुणवडि-हाणी णियमा अत्थि । सेसाणि पदाणि भणिजाणि । आउ० सव्वपदाणि भयणिजाणि । मणुसअपज ० वेउग्वियमि० - आहार०आहारमि० - अवगद ० - सुडुमसंप०० उवसम० सासण० सम्मामि० सव्वपदाणि भयणिजाणि । बादरएइंदि० - बादरपुढ० - आउ० तेउ० वाउ० वणप्फदि - णियोद० - पत्तेय ० तेसिं च अपज० सत्राणं क० छवड्डि-छहाणि अवट्ठि० आउ० सव्वपदा णियमा अस्थि । सेसाणं णिरयभंगो । एवं भंगविचयं समत्तं । भागाभागो ३६२. भागाभागानुगमेण सत्तण्णं कम्माणं पंचवड्डि- हाणि अवट्ठि० सव्व० केव० भागो ! असंखे० भागो । अनंतगुणवड्डी दुभागो सादिरे० । अनंतगुणहाणी दुभागं देसू० । अवत्त० अणंतभा० । आउ० एवं चेव । णवरि अवत्त० असंखेजा भा० । एवं अभंगो कायजोग-ओरालि० लोभ० मोह० अचक्खु भवसि ० आहारग ति । सेसाणं पि भुजगारेण साधेदव्वं । एवं भागाभागं समत्तं । ज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक मौर अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । ३६१. नारकियों में सात कर्मों की अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिके बन्धक जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। आयुकर्म के सब पद भजनीय हैं। मनुष्य अपर्याप्त, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारक काययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, सूक्ष्मसाम्परायिक संयत, उपशम सम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें सब पद भजनीय हैं। बादर एकेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अभिकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और इनके अपर्याप्त जीवों में सात कमोंकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थित पदवाले जीव तथा आयुकर्मके सब पदवाले जीव नियमसे हैं। शेष मार्गणाओं में नारकियोंके समान भङ्ग है । इस प्रकार भङ्गविचय समाप्त हुआ । भागाभाग ३६२. भागाभागानुगमकी अपेक्षा सात कर्माकी पाँच वृद्धि, पाँच दानि और अवस्थित पदके बंधक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अनन्तगुणवृद्धिके बन्धक जीव सब जीवोंके साधिक द्वितीयभाग प्रमाण हैं । अनन्तगुणहानिके बन्धक जीव कुछ कम द्वितीयभाग प्रमाण हैं । अवक्तव्य पदके बन्धक जीव अनन्तवें भाग प्रमाण हैं। आयुकर्मका भङ्ग इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि भवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । इसी प्रकार के समान काययोगी, औदारिक काययोगी, लोभकषायवाले जीवों में मोहनीयकर्म, दर्शनी, भव्य और माहारक जीवोंके जानना चाहिए। शेष सब मार्गणाओंका भङ्ग भुजगार पदके अनुसार साध लेना चाहिए। इस प्रकार भागाभाग समाप्त हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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