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________________ विषय - परिचय बन्ध के चार भेद हैं- प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध इनमें से प्रस्तुत संस्करण में अनुभाग बन्ध का विचार किया गया है। अनुभाग का अर्थ है - फलदानशक्ति । कषायों का शुभ और अशुभ जैसा परिणाम होता है; उसके कर्मों में उसी प्रकार फलदान शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। योग के निमित्त से गुणस्थान परिपाटी के अनुसार यथासम्भव ज्ञानावरणादि आठ मूल प्रकृतियों का और मतिज्ञानावरण आदि उत्तर प्रकृतियों का बन्ध होता है और कषाय के अनुसार उनमें न्यूनाधिक शक्ति का निर्माण होता है । यह न्यूनाधिक शक्ति ही अनुभाग है। प्रत्येक कर्म में उसकी प्रकृति के अनुसार ही अनुभाग शक्ति पड़ती है। इसलिए हम प्रकृति को सामान्य और अनुभाग को विशेष कह सकते हैं। यद्यपि ज्ञानावरण के मतिज्ञानावरण आदि विशेष ही हैं, पर अपनी-अपनी फलदानशक्ति के तारतम्य की अपेक्षा ये भी सामान्य ही हैं। प्रकृतिबन्ध में कहाँ कितनी शक्ति प्राप्त हुई है - इस प्रकार की विशेषता नहीं उत्पन्न होती । यह विशेषता अनुभाग बन्ध से ही प्राप्त होती है। जीव उत्तर काल में जो शुभ या अशुभ कर्मों के फल को भोगता है, उसका कारण मुख्यतः यह अनुभागबन्ध ही है और अनुभाग बन्ध का मूल कारण कषाय है, इसलिए कर्मबन्ध के सब कारणों में कषाय को मुख्य कारण कहा गया है । यों तो बन्धतत्त्व का सांगोपांग विचार करने के लिए अनेक बातों पर प्रकाश डालना आवश्यक है, परन्तु प्रस्तुत भाग में अनुभाग बन्ध का ही विचार किया गया है, इसलिए यहाँ हम एकमात्र इसी का ऊहापोह करेंगे। जीव और कर्म स्वतन्त्र दो द्रव्य हैं। उसमें भी जीव अमूर्त है और कर्म मूर्तिक । एक मूर्तिक का अन्य मूर्तिक के साथ बन्ध अपने स्पर्श गुण के कारण होता है । किन्तु अमूर्तिक का मूर्तिक के साथ बन्ध क्यों होता है? बन्धतत्व को ठीक तरह से समझने के लिए इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करना आवश्यक है। आचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहा है रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि कम्मं विरागसंपत्तो । 1 आशय यह है कि राग और द्वेष के कारण जीव कर्म से बन्ध को प्राप्त होता है । इस प्रकार यद्यपि इस वचन से हमें यह उत्तर तो मिल जाता है कि जीव का बन्ध किस कारण से होता है, फिर भी यह शंका बनी ही रहती है कि स्पर्श गुण के अभाव में जीव का पुद्गल से सम्बन्ध कैसे होता है, क्योंकि एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ स्पर्श विशेष का नाम ही बन्ध है पुद्गल में स्पर्श गुण होता है, इसलिए उसका अन्य द्रव्य के साथ बन्ध बन जाता है, पर जीव द्रव्य में इस गुण का अभाव होने से यह नहीं बन सकता है। यदि यह कहा जाय कि बन्ध पुद्गल का पुद्गल से होता है और जीव उसमें अनुप्रविष्ट रहता है, तो प्रश्न यह होता है कि जीव पुद्गल में अनुप्रविष्ट क्यों हुआ और पुद्गल के स्थानान्तरित होने पर वह उसका अनुगमन क्यों करता है? इस प्रश्न का उत्तर आचार्यों ने यह दिया है कि जीव और पुद्गल का बन्ध अनादि काल से हो रहा है और इस बन्ध का मुख्य कारण जीव की अपनी कमजोरी है। कर्म के निमित्त से जीव में योग और कषाय रूप परिणमन होता है और इस कारण जीव के साथ कर्म सम्बन्ध को प्राप्त होता है । यद्यपि जीव में स्पर्श गुण नहीं है, फिर भी जीव में विद्यमान कषाय परिणाम स्पर्शगुण का ही कार्य करता है । जिस प्रकार पुद्गल में स्पर्श गुण के कारण उसका अन्य पुद्गल द्रव्य के साथ बन्ध होता है, उसी प्रकार जीव में योग व कषायरूप परिणाम होने के कारण उसका कर्म और नोकर्म के साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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