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________________ महाबन्ध ( ) या [ ] ब्रैकेटों से सम्बन्ध रखते हैं, उन सबको हम टिप्पणी में नहीं दिखा सके हैं। इनको देखकर हमें इस बात का आश्चर्य होता है कि ता० प्रति में इतने पाठभेद कैसे हो गये। कनडी की एक प्रति के आधार से दो प्रतिलिपि हुईं- एक श्री पं० सुमेरुचन्द्रजी ने करायी और दूसरी बनारस होकर आयी । फिर भी इनमें लिपिसम्बन्धी बहुत अधिक व्यत्यय है । इस आधार से हमें यह कहना पड़ता है कि भाषा और लिपि आदि कई दृष्टियों से मूल कनडी प्रति का अध्ययन होना चाहिए। इसके बिना कनडी प्रति के ठीक स्वरूप का निश्चय होना सम्भव नहीं है। इन दोनों प्रतियों में हमें लिपिसम्बन्धी जो भी दृष्टिगोचर हुआ उसमें से कुछ को आगे तालिका देकर दिखलाया जाता है है — १४ १. भ और व अक्षरों का व्यत्यय - ता० प्रति पृ. १ पंक्ति ५ में 'विभागदेसो' पाठ है; जबकि आ० प्रति पृ. ६ पंक्ति ३ में यह पाठ 'विवागदेसो' उपलब्ध होता है। २. ए और इ स्वरों का व्यत्यय-ता प्रति पृ० २ पंक्ति ५ में 'सव्वसंकिलेस्स' पाठ है; जबकि आ० प्रति पृ. ८ पंक्ति १२ में 'सव्वसंकिलिहस्स' पाठ उपलब्ध होता है। ३. क और ग अक्षरों का व्यत्यय-ता प्रति पृ० २ पंक्ति १३ में 'उवरिमकेवज्जा' पाठ है; जबकि आ० प्रति पृ० ८ पंक्ति ११ में 'उवरिमगेवज्जा' पाठ उपलब्ध होता है। ४. उ और द्वित्व का व्यत्यय ता० प्रति पृ० २ पंक्ति १३ में 'अणु०' पाठ है जबकि आ० प्रति पृ० ६ पंक्ति १२ में इसके स्थान में 'अण्ण०' पाठ उपलब्ध होता है । ५. 'एफ' के स्थान में केवल फ ता० प्रति पृ० २ पं. १८ में 'वणफदि' पाठ है जबकि आ० प्रति पृ० १० पंक्ति ४ में इसके स्थान में 'वणप्फदि' पाठ उपलब्ध होता है। ६. ज और पका व्यत्यय ता० प्रति पृ० २१ पंक्ति ५ में सुहुमसंज० पाठ है किन्तु इसके स्थान में आ० प्रति पृ० ८२ पंक्ति ११ में 'सुहमसंप०' पाठ उपलब्ध होता है। ७. आकार के हस्व और दीर्घ का व्यत्यय ता० प्रति पृ० २१ पंक्ति १२ में 'अणाद' पाठ है; किन्तु आ० प्रति पृ० ८३ पंक्ति ११ में 'आणद' पाठ उपलब्ध होता है। ८. त और द का व्यत्यय ता० प्रति पृ० ८४ पंक्ति १८ में 'वणफति' पाठ है; किन्तु इसके स्थान में आ० प्रति पृ० ३३३ पंक्ति ३ में 'वणप्फदिका०' पाठ उपलब्ध होता है। ये ऐसे व्यत्यय हैं जो दोनों प्रतियों में सर्वत्र बहुलता से पाये जाते हैं। इनके सिवा थोड़े बहुत अन्य अक्षरों के भी व्यत्यय उपलब्ध होते हैं, उन्हें यहाँ नहीं दिखलाया है। यहाँ यह कह देना हमें आवश्यक प्रतीत होता है कि इन पाठभेदों में से आ० प्रति के पाठ हमें प्रायः उपयुक्त प्रतीत हुए, इसलिए प्रस्तुत मुद्रित संस्करण में हमने उन्हें ही स्वीकार किया है। दूसरे प्रारम्भ के १० मुद्रित फार्मों में जहाँ हमें आ० प्रति के पाठों के स्थान में अन्य पाठ स्वीकार करने पड़े हैं, वहाँ हमने आ० प्रति के पाठ टिप्पणी में दिखला दिये हैं। इसके लिए प्रस्तुत मुद्रित प्रति के ६, १०, ४९, ५४, ५६ और ७५ पृष्ठों की टिप्पणी देखिए । इन स्थलों में पहले हम जो आ० और ता० प्रति के पाठ मिलान की तालिका दे आये हैं, उसमें संशोधित पाठ ही दिखलाये गये हैं। यहाँ आ० प्रति के टिप्पणीगत पाठ ही उसके समझने चाहिए। यहाँ एक बात की सूचना कर देना और आवश्यक प्रतीत होता है कि मूडबिद्री की कनडी प्रति का अनुभागबन्ध के प्रारम्भ का कुछ अंश त्रुटित है, जिसकी पूर्ति हमने उत्तर प्रकृतिअनुभागबन्ध के प्रारम्भिक स्थल को देखकर की है। किन्तु ऐसा करते हुए हमने जोड़े हुए अंश को व्यवस्थानुसार [] ब्रैकेट में दिखलाया है। यह ब्रैकेट प्रथम पृष्ठ से प्रारम्भ होकर पाँचवें पृष्ठ की ११ वीं पंक्ति में समाप्त होता है, इसलिए यह अंश जोड़ा हुआ समझना चाहिए। ग्रन्थ के सन्दर्भ में आनुपूर्वी बनी रहे, एकमात्र इसी अभिप्राय से हमने ऐसा किया है। इस प्रकार इस भाग का सम्पादन हमने जिन विशेषताओं को ध्यान में रखकर किया है, उसका संक्षिप्त विवरण उक्त प्रकार है। - फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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