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________________ भुजगारबंधे सामित्ताणुगमो १२५ २६९. णेरइएसु सत्तण्णं कम्माणं अत्थि भुज अप्पद०-अवढि । आउ० ओघं । एवं सव्वणिरयाणि । वेउब्वियमि०-कम्मइ०-सम्मामि०अणाहारग त्ति सत्तणं कम्माणं अत्थि भुज०-अप्पद० अवद्विद० । अवग० ओघभंगो। अवढि० णत्थि । सुहुमसंप० अस्थि भुज० अप्पद० । सेसाणं सव्वेसि णिरयभंगो । णवरि लोभे मोह. ओघं । एवं समुकित्तणा समत्ता' । सामित्ताणुगमो २७०. सामित्ताणुगमेण दुवि०--ओघे० आदे० । ओघे० सत्तण्णं क. भुज०-अप्प०. अवटिबंधो कस्स होदि ? अण्णदरस्स । अवत्त० कस्स. ? अण्ण उवसामणादो परिवदमाणस्स मणुसस्स वा मणुसिणीए वा पढमसमयदेवस्स वा । एवं ओघभंगो पंचिंदि०. तस०२-कायजोगि-आमि०-सुद०-ओधि०-चक्खु०-अचक्खु०-ओधिदं०-सुक्कले०-भवसि०. सम्मादि०-खड्ग०-उवसम०-सण्णि-आहारग त्ति । एवं मणुस०३-पंचमण-पंचवचि०. ओरालि०-मणपज०-संजदा० । णवरि अवत्तव्व० देवो त्ति ण माणिदव्वं । एदेसि सव्वेसि आउग० भुज०-अप्प० अवढि० कस्स ? अण्ण० । अवत्त० कस्स० ? अण्णद० पढमसमयआउगबंधमाणगस्स । एवं आउग याव अणाहारग ति माणिदव्वं । २६६. नारकियों में सात कर्मों के भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धवाले जीव हैं । श्रायु. कर्मका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकी जीवोंके जानना चाहिए। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अनाहारक जीवों में सात कर्मों के भुजगार, अल्पतर और अवस्थित बन्धवाले जीव हैं । अवगतवेदी जीवोंमें ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें अवस्थितपदवाले जीव नहीं हैं। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें भुजगार और अल्पतर पदवाले जीव हैं। शेष सब मार्गणाओंका भंग नारकियों के समान है। इतनी विशेषता है कि लोभकषायवाले जीवों में मोहनीयकर्मका भंग ओघके समान है। इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई। स्वामित्वानुगम २७०. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सातकर्मों के भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है । अवक्तव्यपदका स्वामी कौन है ? उपशमश्रेणीसे गिरनेवाला अन्यतर मनुष्य, मनुष्यिनी या प्रथम समयवर्ती देव उक्त पदका स्वामी है। इसी प्रकार अोधके समान पंचेन्द्रियद्विक त्रसद्विक. काययोगी, श्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार मनुष्यत्रिक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, औदारिककाययोगी, मनःपर्ययज्ञानी और संयत जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इन मार्गणाओं में अवक्तव्यपदका स्वामी देव होता है, यह नहीं कहना चाहिये। इन सब मार्गणाओं में आयुकर्मके भूजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है। इसके प्रवक्तव्यपदकस्वामी कौन है ? प्रथम समयमें आयुकर्मका बन्ध करनेवाला अन्यतरजीव अवक्तव्य पदका स्वामी है। आयुकर्मका भंग इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक कहना चाहिये । १. ता. प्रतौ एवं समुकित्तणा समत्ता इति पाठो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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