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________________ भुजगारबंधो २६७. भुजगारबंधैं त्ति तत्थ इमं अट्ठपदं-याणि अस्सि समए अणुभागफद्दगाणं बंधदि अणंतरओसकाविदविदिक्कते' समए अप्पदरादो बहुदरं बंधदि त्ति एस भुजगारबंधो णाम । अप्पदरबंधे त्ति तत्थ इमं अट्ठपदं-याणि अस्सि समए अणुभागफयाणि बंधदि अणंतर-उस्सकाविद विदिक्कते समए बहुदरादो अप्पदरं बंधदि ति एस अप्पदरबंधो णाम । अवविदबंधे ति तत्थ इमं अट्ठपदं--याणि अस्सि समए अणुभागफद्दगाणं बंधदि अणंतरओसकाविदविदिकंते समए तत्तियाणि तत्तियाणि चेव बंधदि ति एस अवट्ठिदबंधो णाम । अवत्तव्वबंधे ति तत्थ इमं अट्ठपदं-अबंधादो बंधदि त्ति एसो अवत्तव्वबंधो णाम । एदेण अट्ठपदेण तेरस अणियोगदाराणि-समुक्त्तिणा सामित्तं एवं याव अप्पाबहुगें त्ति १३ ।। समुक्त्तिणाणुगमो २६८. समुक्त्तिणदाए दुवि०--ओघे० आदे० । ओघे० अट्टण्णं कम्माणं अस्थि भुज० अप्पद० अवट्ठिद अवत्तव्यबंधगा य । एवं ओघभंगो मणुस०३-पंचिंदि०-तस०२पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालि०-आमि०-सुद०-ओधिo-मणपज०-संजद०चक्खुदं०-अचक्खुदं०-ओधिदं०-सुकले०-भवसि०-सम्मादि०-खइग०-उवसम०-सण्णिआहारग त्ति । भुजगारबन्धप्ररूपणा २६७. भुजगारबन्धका प्रकरण है। उसके विषय में यह अर्थपद है-जा इस समयमें अनुभागके स्पर्धक बाँधता है, वह अनन्तर अपकर्षको प्राप्त हुए पिछले समयसे अल्पतरसे बहुतर स्पर्धक बाँधता है, यह भुजगार बन्ध है। अल्पतर बन्धके विषयमें यह अर्थपद है-जो इस समय अनुभागके स्पर्धक बाँधता है, वह अनन्तर उत्कर्षको प्राप्त हुए पिछले समयसे बहुतरसे अल्पतर बाँधता है-यह अल्पतरबन्ध है। अवस्थितबन्धके विषयमें यह अर्थपद है-जो इस समय अनुभागके स्पर्धक बाँधता है, वह अनन्तर अपकर्षको प्राप्त हुए या उत्कर्षको प्राप्त हुए पिछले समयसे उतने ही, उतने ही स्पर्धक बाँधता है, यह अवस्थितबन्ध है। अवक्तव्यबन्धके विषयमें यह अर्थपद है-जो पहले नहीं बाँधता था और अब बाँधता है, यह अवक्तव्यबन्ध है। इस अर्थपदके अनुसार तेरह अनुयोगद्वार होते हैं-समुत्कीर्तना और स्वामित्वसे लेकर अल्पबहुत्व तक १३ । समुत्कीर्तनानुगम २६८. समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे आठों कर्मोके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव है। इसी प्रकार ओघके समान मनुष्यत्रिक, पंचेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, प्राभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनी, अचचुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललण्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । .. a. प्रतौ विओकते इति पाठः । २, ता. प्रती अणंतरं उस्सकाविदं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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