________________
अप्पा वहुगपरूत्रणा
१२३
२६६. इत्थि० - पुरिस० मणुसि० भंगो। णवुंस० - अवगद ० सुहुमसं० ओघं । आभि०सुद० - ओधि० - मणपज ० - संजद - सामाइ ० - छेदो ० - ओधिदं ० - सम्मादि ० - खड्ग ० - उवसम० ओघं । वरि सव्वरि आउ० अनंतगु० । तेउ-पम्मा० देवोघं । सुक्काए मणुसि० भंगो । वरि आउ० सव्वरि भाणिदव्वं ।
एवं अप्पा बहुगं समत्तं ।
एवं चदुवीस मणियोगद्दाराणि समत्ताणि ।
२६६. स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें मनुष्यिनियोंके समान अल्पबहुत्व है । नपुंसकवेदी, अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत जीवों में ओघ के समान अल्पबहुत्व है । श्रभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संगत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें ओघ के समान अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि इनमें सबके अन्त में आयुकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा अधिक है । पीतलेश्या और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें सामान्य देवोंके समान अल्पबहुत्व है । शुरूलेश्यावाले जीवोंमें मनुष्यिनियोंके समान अल्पबहुत्व है । इतनी विशेषता है कि इनमें आयुकर्म का अल्पबहुत्व सबके अन्त में कहना चाहिये ।
Jain Education International
इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इस प्रकार चौबीस अनुयोगद्वार समाप्त हुए ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org