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________________ १२२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे २६३. तिरिक्खेसु ओघं । णवरि णाणा०-दसणा० अंतरा० तिण्णि वि तुल्ला. अणंतगु० । सव्वपंचिंदि तिरि०-मणुसअपज्ज-सव्वविगलिंदि०-तिण्णिकाय-पंचिंदि०. तसअपज्ज. सव्वमंदाणुभागं मोह० । णाणा-दंसणा० अंतरा० तिण्णि वि तु० अणंतगुणब्भ० । [ आउ० अणंतगुण । ] णामा०-गोद० दो वि' तु० अणंतगुणब्म० । वेद० अणंतगु०। २६४. मणुस०३ ओघं । णवरि णामा-गोदा० दो वि तुल्ला० अणंतगु० । देवाणं याव उवरिमगेवज्जा' त्ति पढमपुढविभंगो। अणुदिस याव सबढ० ति णिरयोघं । एवं [एइंदि०-] तेउ-वाऊणं वि । २६५. ओरालिय० ओघं । ओरालियमि०-मदि० सुद०-विभंग० असंज-किण्ण.. णील-काउ०-अब्भवसि० मिच्छादि०-असण्णि० तिरिक्खोघं । वेउव्वियका० सत्तमपु. भंगो। एवं वेउनियमि० । णवरि आउ० णत्थि । आहार-आहारमि०-परिहार'०संजदासंजद०-वेदग०-सासण-सम्मामि० सव्वट्ठभंगो। कम्मइ०-अणाहार०तिरिक्खोघं । णवरि आउ० णस्थि । २६३. तिर्यञ्चोंमें ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मके जघन्य अनुभागबन्ध तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। सब पचेन्द्रियतिर्यंच, मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पृथ्वी, जल व वनस्पति तीनों स्थावरकाय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंमें मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभागवन्ध सबसे मन्द है। इससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मके जघन्य अनुभागबन्ध तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। इनसे आयु कर्मका जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा अधिक है। इससे नाम और गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागवन्ध दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं । इससे वेदनीयकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा अधिक है। २६४. मनुष्यत्रिकमें ओघके समान अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि नाम और गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्ध दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक है। सामान्य देवोंमें और उपरिमवेयक तकके देवोंमें पहली पृथिवीके समान अल्पबहुत्व है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सामान्य नारकियोंके समान अल्पबहुत्व है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय, अग्निकायिक और वायकायिक जीवोंके भी जानना चाहिये। २६५. औदारिककाययोगी जीवोंमें ओघके समान अल्पबहुत्व है। औदारिकमिश्रकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कपोतलेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवों में सामान्य तिर्यञ्चोंके समान अल्पबहुत्व है । वैक्रियिक काययोगी जीवोंमें सातवीं पृथिवीके समान अल्पबहुत्व है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनमें आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। आहारक काययोगी. आहारकमिश्रकाययोगी, परिहारविशद्धिसंयत, संयतासंयत, वेदकसम्यग्दृष्टि. सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यन्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें सर्वार्थसिद्धिके समान अल्पबहुत्व है । कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सामान्य तिर्यश्चोंके समान अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि इनमें आयुकर्मका बन्ध नहीं है। १. ता० प्रती गोद० उ० दो वि इति पाठः । २. ता. प्रतौ णवके (गेव) जा इति पाठ । ३. ता. प्रतौ परिहार.? इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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