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________________ १२६ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे २७१.णिरएसु सत्तण्णं क० भुज०-अप्पद०-अवढि० कस्स० ? अण्ण० । वेउब्धियमि० सत्तण्णं क. भुज०-अप्पद०-अवट्टि० कस्स० ? अण्ण० । एवं कम्मह० सम्मामिच्छा०अणाहारग त्ति । सेसाणं सव्वेसि णिरयभंगो। णवरि अवगद० घादि०४ भुज. कस्स० ? अण्ण० उवसमणादो परिवदमाणस्स । एवं अवत्त । अप्पद० क.? अण्ण. उवसा० खइग० । अघादीणं भुज० उवरि चढमाण० । अप्प० कस्स० ? ओदरमाण०' । एवं अवत्त । एवं सुहमसंप० छण्णं कम्माणं० । एवं सामित्तं समत्तं'। कालाणुगमो २७२. कालाणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० सत्तण्णं क० भुज. अप्प० जह० एम०, उक्क० अंतो० । अवढि० जह० एग०, उक्क० सत्तट्ट सम । अवत्त० एग० । आउ० भुज०-अप्प० जह० एग०, उक्क अंतो० । अवट्टि० जह० एग०, उक्क० सत्तसम० । अवत्त० एग० । एवं ओघभंगो एसिं अट्ठणं वि अवत्तव्वगा अस्थि । २७१. नारकियोंमें सात कर्मों के भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सात कर्मों के भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है। इसी प्रकार कार्मणकाययोगी, सम्यग्मिध्यादृष्टि और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। शेष सव मार्गणाओंका भंग नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अपगतवेदी जीवोंमें चार घातिकर्मों के भुजगारपदका स्वामी कौन है ? उपशमणिसे गिरनेवाला अन्यतर जीव उक्त पदका स्वामी है। इसी प्रकार अवक्तव्य पदका स्वामी कहना चाहिये। अल्पतरपदका स्वामी कौन है ? अन्यतर उपशामक और क्षपक जीव अल्पतरपदका स्वामी है। अघाति कर्मों के भुजगारपदका स्वामी ऊपर चढ़नेवाला जीव कहना चाहिये । अल्पतरपदका स्वामी कौन है ? नीचे गिरनेवाला जीव अल्पतर पदका स्वामी है। इसी प्रकार अवक्तव्य पदका स्वामी कहना चाहिए। तथा इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्पमयिक संयत जीवोंमें छह कमौके पदांका स्वामित्व कहना चाहिए। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। कालानुगम २७२. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। ओघसे सात कर्मों के भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितपदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात-आठ समय है। अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । आयुकर्मके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात समय है। अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इस प्रकार जिन मागणाओंमें आठों कमकि श्रवक्तव्यपदका बन्ध करनेवाले जीव है, उनमें ओघके समान जानना वाहिये। शेष मार्गणाओंमें भी सात कर्मों के प्रवक्तव्यपदको छोड़कर ओघके समान जामना १. आ. प्रतौ कस्स. बादरमा० इति पाठः । २. ता. प्रती एवं सामि सम इति पाठो नास्ति । भग्रेऽप्येवंविधो व्यत्ययो दृश्यते बहुलतया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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