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________________ फासण्परूवणा ६१ आउ० जह० अज० लो० असं० । सेसाण तं चेव । एवं वाऊणं पि । णवरि जम्हि लोग० असंखेजदि० तम्हि लोग० संखेजदि० । सव्वसुहमाणं सुहुमेइंदियभंगो। सबवणफदिणियोदाणं सव्व पुढविभंगो । सेसाणं संखेज-असंखेजजीविगाणं अट्ठण्णं क० जह० अज० लो० असं०। णवरि वादरवाउ० पञ्जत्ते अट्ठण्णं क० जह० अज० लो० संखें। एवं खेत्तं समत्तं । २० फोसणपरूवणा २०८. फोसणं दुविध--जह० उक्क० । उक्क० पगदं । दुवि०-ओघे०-आदे०। ओघे० अनुभागके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । शेष कर्मोंका वही भङ्ग है । इसी प्रकार वायुकायिक जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि जहाँ पर लोकका असंख्यातवाँ भाग प्रमाण क्षेत्र कहा है, वहाँ पर लोकका संख्यातवाँ भाग प्रमाण क्षेत्र जानना चाहिये। सब सूक्ष्म जीवों में सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके समान भङ्ग है। सब वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें सब पृथिवीकायिक जीवोंके समान भङ्ग है। शेष संख्यात और असंख्यात जीववाली मार्गणाओंमें आठों कर्मोके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है। इतनी विशेषता है कि बादरवायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें आठों कर्मोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका लोकके.संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है। विशेषार्थ-तीन घाति कोका जघन्य अनुभागबन्ध क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके होता है। मोहनीयका जघन्य अनुभागबन्ध अनिवृत्तिकरण क्षपक जीवके होता है। तथा गोत्र कर्मका जघन्य अनुभागबन्ध सातवीं पृथिवीमें सम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके होता है। इसलिए इन पाँच कोंके जघन्य अनुभागबन्धकी अपेक्षा क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। अब रहे शेष तीन कर्म सो उनके जघन्य अनुभागबन्धकी अपेक्षा सर्व लोक क्षेत्र कहने का कारण यह है कि इन तीन कर्मोका जघन्य अनुभागबन्ध अपनी-अपनी विशेषता के रहने पर अन्यतर जीवोंके हो सकता है। आठों कर्मों के अजघन्य अनुभागबन्धकी अपेक्षा सर्व लोक क्षेत्र है, यह स्पष्ट ही है। यहाँ ओघके समान जिन मार्गणाओंमें क्षेत्र सम्भव है, उनके नाम मूलमें गिनाए हैं सो अपनी-अपनी विशेषताको ध्यानमें रखकर उन मार्गणाओंमें ओघके समान क्षेत्र घटित कर लेना चाहिए,यह उक्त कथनका तात्पर्य है । तिर्यंचोंमें सात कर्मों के जघन्य और अजघन्य अनुभागवन्धकी अपेक्षा क्षेत्र तो ओघके समान ही बन जाता है। मात्र गोत्रकर्ममें जघन्य अनुभागबन्धकी अपेक्षा कुछ विशेषता है । बात यह है कि तिर्यंचोंमें गोत्रकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध सर्वविशुद्ध बादर अग्निकायिक पर्याप्त और बादर वायुकायिक पयाप्त जीव करते है और ऐसी अवस्थामें इनका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण ही होता है। अतः तिर्यंचोंमें गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धकी अपेक्षा क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण कहा है। यहाँ मूलमें औदारिककाययोग आदि अन्य पाँच मार्गणाओंमें क्षेत्रप्ररूपणाको सामान्य तिर्यंचोंके समान जाननेकी सूचना की है सो इसका कारण यह है इनमें गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागवन्धकी अपेक्षा लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र बन जाता है। यहाँ तक हमने कुछ मार्ग में क्षेत्रको घटित करके बतलाया है। आगे मूल में जिन मार्गणाओंमें क्षेत्र सम्बन्धी विशेषता कही है,उसे उन-उन मार्गणाओं में स्वामित्वको जानकर घटित कर लेनी चाहिए। विस्तारभयसे यहाँ हमने सबका अलग-अलग विचार नहीं किया है । इस प्रकार क्षेत्र समाप्त हुआ। २० स्पर्शनप्ररूपणा २०८. स्पर्शन दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे चार घाति कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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