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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे
घादि०४ उक्क ० अणुभागबंध हि केवड खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असं० अट्ठ-तेरह० । अणु० सव्वलो० । चदुष्णं उकस्सं खतभंगो । अणुकस्सं सव्वलोगे । एवं ओघभंगो कायजोग कोधादि ०४- मंदि० सुद० - असंज ० - अचक्खुदं० भवसि ० - मिच्छा० आहारग त्ति ।
२०. रहस घादि०४ उक्क० अणुक्क० छच्चों६० । वेद० णामा० - गोद० उक्क० खेतभंगो । अणु० छच्चों० । आउ० खेत्तभंगो | एवं सत्तसु पुढवीसु अप्पप्पणो फोसणं दव्वं ।
जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण, आठ बटे चौदह राजू और तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। चार अघाति कमोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इस प्रकार ओघ के समान काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य, मिथ्यादृष्टि और श्राहारक जीवके जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - सामान्य से चार घाति कर्मोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन तीन प्रकारका बतलाया है । लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन वर्तमान कालकी अपेक्षा कहा है। कुछ कम आठवटे चौदह राजू स्पर्शन विहारवत्स्वस्थान आदि की अपेक्षा कहा है और कुछ कम तेरहबटे चौदह राजू स्पर्शन मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कहा है। इन चार कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धकी अपेक्षा स्पर्शन सर्वलोक है, यह स्पष्ट ही है । चार अघाति कर्मोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान कहनेका कारण यह है कि इनमें से तीन कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध विशुद्ध परिणामों में क्षपक सूक्ष्म साम्परायिक और आयुकर्मका अप्रमत्तसंयत मनुष्योंके ही होता है और इनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं बनता । यदि इनके स्पर्शनका विचार किया जाता है। तो सब मिलाकर वह भी लोकके भसंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है । इन चार कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धकी अपेक्षा स्पर्शन सर्व लोक है । यहाँ मूलमें काययोगी आदि अन्य कुछ मार्गणाओं का कथन ओके समान कहा है सो अपनी-अपनी विशेषता को समझकर इसे घटित कर लेना चाहिए। अभिप्राय इतना है कि ओघसे आठ कर्मोंके स्त्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धकी अपेक्षा जो स्पर्शन बतलाया है, वह इन मार्गणाओं में भी बन जाता है ।
२०६. नारकियोंमें चार घाति कर्मों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । वेदनीय नाम और गोत्र कर्मके उत्कृष्ट अनुभाग बन्धका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । अनुत्कृष्ट अनुभाग के वन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मका भंग क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियों में अपना-अपना स्पर्शन जानना चाहिये ।
विशेषार्थ-नरक में वेदनीय नाम और गोत्र कर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वविशुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव तथा कर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध तत्प्रायोग्य विशुद्ध सम्यग्दृष्टि जीवके होता है, इसलिए इनका स्पर्शन क्षेत्र के समान लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है, क्योंकि ऐसी अवस्थामें इससे अधिक स्पर्शन सम्भव नहीं है । तथा आयुकर्मका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टि दोनों प्रकार के जीवों हो सकता है, परन्तु ऐसी अवस्था में न तो मारणान्तिक समुद्घात होता है और नही उपपादपद होता है। अत: आयुकर्म के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धकी अपेक्षा भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। शेष स्पर्शन स्पष्ट ही है। यहाँ एक बातकी ओर संकेत कर देना आवश्यक हैं कि यहाँ चार घाति आदि कर्मों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धकी अपेक्षा स्पर्शनका निर्देश करते समय वर्तमानकालीन स्पर्शनका उल्लेख नहीं किया है सो उसका यही कारण प्रतीत होता है कि इस दृष्टिसे क्षेत्रकी अपेक्षा स्पर्शनमें कोई विशेषता नहीं है, यह जानकर उसका अलग से निर्देश नहीं किया है ।
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