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________________ जानना चाहिये। महाबंध अणुभागबंधाहियार १९९. मणुस. घदि०४ जह० संखजा। अज० असंखजा! सेसाणं जह० अज० असंखज्जा। एवं पंचिंदि०-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-इत्थि०-पुरिस-विभंग.. चक्खुदं० तेउ०-पम्म०-सासण-सम्मामि०-सण्णि ति । मणुसपजत्त-मणुसिणीसु सन्वपगदीणं जह० अज० संखेजा। एवं सव्वदृसि०-आहार-आहारमि०-अवगदवे०-मणपज०-संजद०-सामाइ०-छेदोव०-परिहार० सुहुमसंप० । आणदादि याव अवराजिदा त्ति' आउ० जह० अज० संखेज्जा । सेसाणं जह० अज० असंखेजा। २००. तिरिक्खेसु धादि०४ गोद० जह० असंखेज्जा । अज० अणंता । सेसाणं जह० अज० अणंता। २०१. एइंदिएसु गोद० जह० असंखेज्जा । अज० अणंता । सेसाणं जह० अज. अणंता । एवं बादरपज्जत्त-अपज्जत्ता० सुहमपज्जत्त-अपज्जत्ता० सव्ववणफदि० । णियोदाणं अट्ठण्णं क० ज० अज० अणंता। २०२. आभि०-सुद०-ओधि० घादि०४-आउ० जह० संखेज्जा। अज. असंखज्जा। सेसाणं जह० अज० असंखज्जा । एवं ओधिदं०-सम्मादि०-वेदग०-उवसम । शरीर, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, वसअपर्याप्त, वैक्रियिक काययोगी और वैक्रियिकामश्रकाययोगी जीवोंमें " १६६. मनुष्योंमें चार घाति कर्मों के जवन्य अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। शेष कर्मोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय द्विक, सद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, स्त्रीवेदी पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मियादृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव, श्राहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिक संयत. छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसम्परायसंयत जीवोंके जानना चाहिये। आनतकल्पसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें आयु कर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बंधक जीव संख्यात हैं । शेष कर्मों के जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक लीव असंख्यात हैं। २००. तिर्यंचोंमें चार घातिकर्म और गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं। शेष कर्मों के जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं। " २०१. एकेन्द्रियोंमें गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागके बंधक जीव असंख्यात हैं। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं। शेष कर्मोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त तथा सब वनस्पतिकायिक जीवोंके जानना चाहिये । निगोद जीवोंमें आठों कर्मों के जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं। २०२. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें चार घातिकर्म और आयुकर्मके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। शेष कर्मों के जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। संयतासंयत १त. प्रतौ अणा ( प्राण ) दादि उकरिय के ( गे ) वेज्ज०, श्रा० प्रती प्राणदादि याव उवरिम. गेवज्जा इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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