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________________ परिमाणपरूवणा यदि उवसमपच्छागदस्स कीरदि पढमसमयदेवस्स तो उक्क०' संखेंज्जा । अणुक्क० असंखेज्जा। एवं कम्मइ०-अणाहारएसु । मदि०-सुद० आउ० उक्क. असंखेजा । अणु० अणंता। सेसाणं सत्तण्णं क. उक्क० अणु० ओघं । एवं असंज-मिच्छादिहि त्ति । विभंगे घादि०४-आउ० उक्क० अणु० असंखेजा। अघादीणं उक्क० संखेजा । अणुक्क० असंखज्जा । एवं संजदासंजदा०। १९७. जहण्णं । दुवि०-ओघे० आदे। ओधे० धादि०४ जह० संखेजा। अज. अणंता । वेद०-आउ०-णामा० ज० अज० अणंता । गोद० जह० असंखेजा। अज० अणंता । एवं ओघभंगो कायजोगि-ओरालि०-ओरालियमि०-कम्मइ०-णस०-कोधादि४मदि०-सुद०-असंज०-अचक्खु०-भवसि०-मिच्छादि०-अणाहारग ति। १८. गेरइएसु अट्ठण्णं क. जह• अजह• केत्तिया! असंखेजा । एवं सत्तसु पुढवीसु । एवं णिरयभंगो सव्वपंचिंदि०तिरि०-मणुसअपज० देवा याव सहस्सार त्ति सव्वविगलिंदि०-सव्वपुढवि०-पाउ० तेउ०-चाउ०-बादरवणप्फदिपत्ते०-पंचिंदि०-तस० अपज्ज०-वेउ०-वउव्वियमि० । बन्धक जीव असंख्यात हैं। अथवा उपशमश्रेणीसे आया हुआ जो प्रथम समयवर्ती देव अघाति कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबंध करता है, उसकी अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें अघातिकर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धकी अपेक्षा उक्त नियम जानना चाहिये। मत्यज्ञानी और ताज्ञानी जीवोंमें आयुकर्मके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं। शेष सात कर्मों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार असंयत और मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । विभंगज्ञानी जीवोंमें चार घातिकर्म और आयुकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। अघाति कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिये। इस प्रकार उत्कृष्ट परिमाण समाप्त हुआ। १६७. जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे चार घातिकोके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं । अजघन्य अनुभागके बन्धकजीव अनन्त हैं। वेदनीय, आयु और नामकर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बंधक जीव अनन्त हैं। गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। अजघन्य अनुभागके बन्धकजीव अनन्न हैं। इस प्रकार ओधके समान काययोगी औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाय योगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य, मिथ्यादृष्टि और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। १९८. नारकियोंमें आठ कर्मोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिये । इसी प्रकार नारकियोंके समान सब पंचेन्द्रियतिर्यंच, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, सहस्रारकल्प तकके देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बादर वनस्पति कायिक प्रत्येक १ श्रा० प्रती -देवस्स उक्क० इति पाठः । २ ता०-श्रा०प्रत्योः श्राहारग त्ति इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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