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________________ वृत्ति, व्याख्या आदि शब्दों को उन उन ग्रन्थों की टीका के रूप में पहचानना यह एक प्रवाह है । इसमे वर्षों पहले के मेरे इस प्रकार के प्रवाह के संस्कार से प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम 'मूलशुद्धिप्रकरणटीका' दिया है । किन्तु ग्रन्थकार ने प्रस्तुत टीका को व्याख्या (पृ० १ पं० ८), विवरण (प्रत्येक स्थानक के अन्त की पुष्पिकामें) और वृत्ति ( टीकाकार की प्रशस्ति का १०वाँ और १५ वाँ पद्य) के नाम से कहा है। प्रस्तुत प्रथम भाग में रही हुई अशुद्धियों का शुद्धिपत्रक दिया गया है। उसके अनुसार सुधारकर पढ़ने का मेरा सूचन है । - पूज्यपाद पुरातत्त्वाचार्य मुनि श्री जिनविजयजी (मुनिजी) ने २५ वर्ष पहले मेरी योग्यता का विचार करके श्री सिंघी जैनग्रन्थमाला में यह ग्रन्थ प्रकाशित करने के लिए मुझे सम्पादन के लिए दिया था इसके लिये मैं उनका, अनेक उपकारों के स्मरण पूर्वक विनीत भाव से आभार व्यक्त करता हूँ। प्रेस आदि की अव्यवस्था और पूज्य मुनिजी राजस्थान सरकार द्वारा प्रस्थापित राजस्थान प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान के सम्मान्य नियामक के स्थानपर होने के कारन प्रस्तुत ग्रन्थ के मुद्रण में सुदीर्घ समय बीत गया, मैं भी पूज्यपाद आगमप्रभाकरजी विद्वद्वर्य मुनि श्री पुण्यविजयजी महाराज के आदेश से प्राकृत ग्रन्थ परिषद् [PRAKRTATEXT SociETy] में और उसके बाद श्रीमहावीर जैन विद्यालय संचालित 'आगम प्रकाशन विभाग' में नियुक्त हुआ । ऐसे समय प्राकृत ग्रन्थ परिषद् के सम्मान्य मंत्री एवं श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर के मुख्य नियामक, भारतीय दर्शनों के गम्भीर अभ्यासी श्री दलसुखभाई मालवणियाजी ने पूज्य मुनिजी से परामर्श करके इस रुके हुए प्रकाशन की उपयोगिता जानकर इसे प्राकृत ग्रन्थ परिषद् से प्रकाशित करने का निर्णय लेकर मेरे कार्य में जो प्रोत्साहन दिया उसके लिए मैं श्री मालवणियाजी के प्रति ऋणिभाव व्यक्त करता हूँ। मैं जो कुछ भी यत् किंचित् संशोधनकार्य करता हूँ उस में जहाँ कहीं भी शंकित स्थान आते हैं उनका समाधान प्राप्त करने के लिए पूज्यपाद आगमप्रभाकरजी मुनिवर्य श्री पुण्यविजयजी महाराज का अमूल्य समय ३५ वर्ष से लेता आ रहा हैं। इन उपकारी पुरुष की ऋणवृद्धि भी मुझे सविशेष धन्यता का अनुभव करा रही है। __ इस ग्रन्थ का संस्कृत में लिखा हुआ विषयानुक्रम देखकर योग्य सूचन करने के लिए पं. श्री हरिशंकरभाई अंबाराम पंड्या का मैं आभारी हूँ। २४ से २८ फार्म और सम्पादकीय आदि के मुद्रण में श्रीरामानन्द प्रिन्टिंग प्रेस के मुख्य संचालक स्वामी श्रीत्रिभुवनदासजी शास्त्रीजी ने जो सहकार दिया है उसके लिए उनके प्रति कृतज्ञभाव प्रकट करता हूँ। श्री महावीर जैन विद्यालय संचालित आगम प्रकाशन विभाग लणसावाडा-मोटी पोळ जैन उपाश्रय विद्वज्जनविनय अहमदाबाद-१ अमृतलाल मोहनलाल भोजक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001387
Book TitleMulshuddhiprakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPradyumnasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year
Total Pages248
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size21 MB
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