SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जहाँ २ संभावना हो वहाँ मुख्यतः प्रतिलिपिकार को पाठपतन का भ्रम न हो उसके लिए उतने स्थान को रिक्त न रखकर 'थथथथथ' अथवा 'छछछछछ' ऐसे फल्गु अक्षरों से भर दिया जाता था । प्रस्तुत ग्रन्थ के मेटर का संशोधन होने के बाद ही मूलशुद्धिप्रकरणटीका की जो 'E' संज्ञक प्रति मिली है यह c और D प्रति के कुल की प्राचीन प्रति है । ७७ वें पृष्ठ में आई हुई मूल की १९ वी गाथा के अन्त में आया हुआ 'वराओ' शब्द के स्थान में टीका में 'पराओ' शब्द प्रतीक के रूप में दिया है। उससे उपयुक्त प्रतियों में टीकाकारसम्मत मूलपाठ कचित् नहीं भी मिला ऐसा कह सकते हैं । टीकाकार ने मूलकी सम्पूर्ण गाथाओं को उद्धृतकर के टीका की रचना की है। अतः टीका की प्रतियों में मूलपाठ सम्पूर्ण है ऐसा समझना चाहिए। संशोधन... यहाँ उपर बताई गई प्रतियों में से जिस प्रति का पाठ सुसंगत लगा है उस को मूल में स्वीकृत करके शेष प्रतियों के पाठ टिप्पण में दिये गये हैं। जहाँ मूलगाथा के शब्द को टीका में प्रतीक रूप से लेकर उसका संस्कृत में अर्थ किया गया है वहाँ मूलगाथा के उन शब्दों को "" ऐसे अवतरण चिह्न के मध्य में रख दिये हैं। जहाँ मूलगाथा के विभक्त्यन्त प्राकृत शब्द के संस्कृत पर्याय लिखकर उन संस्कृत पर्यायों का अर्थान्तर टीका में बताया गया है वहाँ मूल के उस प्राकृत शब्द के संस्कृत पर्याय को ' ' ऐसे अवतरण चिह्न के मध्य में रख दिए हैं। जहाँ मूल के सामासिक वाक्य में आए हुए प्राकृत शब्द के संस्कृत पर्याय लिखकर उसका अर्थान्तर टीका में बताया है वहाँ मूल के समासगत उन प्राकृत शब्द के संस्कृत पर्याय और उनके अर्थान्तर के वीच में =ऐसा चिह्न दिया गया है । वाचकों की अनुकूलता के लिए ग्रन्थगत कथाओं में उन कथाओं के पात्रों के वक्तव्य को ' ' ऐसे और आवश्यक हो वहाँ " " ऐसे अवतरण चिह्नों के मध्यमें रख दिये हैं। शेष चिह्नों के सम्बन्ध में प्राकृतग्रन्थ परिषद् के तीसरे ग्रन्थाङ्क रूप से प्रसिद्ध "चउप्पन्नमहापुरिसचरियं" ग्रन्थ की प्रस्तावना का पृ. ३७ को देखने का सूचन करता हूँ। उपर बताये गये चिह्नों की एवं प्रतियों की संज्ञा तथा ग्रन्थान्तर के पाठ की गाथाओं के अलग टाइप रखने आदि की पसन्दगी आज से २५ वर्ष पहले भारतीय विद्याभवन मुंबई के सम्मान्य नियामक एवं श्री सिंघी जैन ग्रन्थमाला के प्रधान सम्पादक और संचालक पुरातत्त्वाचार्य मुनिजी श्री जिनविजयजी ने निर्णीत कर दी थी । प्रस्तुत विशाल ग्रन्थ में आये हुए ग्रन्थान्तर के अवतरणों का सम्पूर्ण पृथक्करण करना मेरे लिये मुश्किल था फिर भी आज से २५ वर्ष पूर्व के मेरे तथाप्रकार के अतिस्वल्प अभ्यास के अनुसार उन अवतरणों को अलग टाईप में देने का प्रयत्न किया है जो अपर्याप्त है । यहां ग्रन्थान्तर की अनेक सुभाषित गाथाओं का तो पृथक्करण करना अशक्य ही है। ग्रन्थ और ग्रन्थकार आदि के विषय में विशेष जानकारी दूसरे भाग की प्रस्तावना में देना मैने उचित माना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001387
Book TitleMulshuddhiprakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPradyumnasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year
Total Pages248
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy