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सुमइनाह-चरियं
विसमं पि वसण-रनं सुहेण लंघंति हुति जे धीरा ।
कीबा उ विसय-पिसाय-परवसा लंघिउं न खमा ||८||
तओ वीसमिऊण महत्तमेत्तं संसार-सरूवं व आवया-सय-समाउलं, रयणी-मुहं व दीसंत-बहु-दीवियं, सरय-समयं व समंतओ भमंत-मत्तकरि-सयं महारनं पलोयं तो पत्तो राया महंतं सरोवरं; जं च रायाणमागच्छंतं पेच्छमाणं व पफुल्ल-कमल-लोयणेहिं, आलिंगणमणं व दूर-पसरिय-तरंग-बाहाहिं, कयग्घदाणं पिव मरगय-“थालीयमाणपउमिणी-पत्त-परिहिय-सलिल-मुत्ताहलुप्पीलेण, कयमंगल-गीयं व गंधलुद-मुद्ध-"फुल्लंधय-धोरणी-रणिएहिं, कुसलमाभासंतं व सारस-- चगोर-चक्कवाय-कलहंस-कुल-कूजिएहिं । तओ तम्मि "जल-कीलासोक्खमणुभविऊण सरस-कंदफल-जणिय-पाणवित्ती चिंतिउं पवत्तो जहा- संपयं मान-समओ वदृइ, तहा हि -
कस्स न दहति देहं दूहव-महिला-कर व्व संलग्गा । संपइ किरणा नीसेस-भुवण-दुईसणा रविणो ? ||८७ ।। मज्जंति "कास-रसयाई सरोवरेसु,
किच्छेण ठंति विहगा निय-नीड-लीणा । रोमंथ-मंथर-मुहाई महीरुहाण,
"छायं कुरंगय-कुलाइं "निसेवयंति ||८८|| 'ता निरंतर-तरुण-दल-नियर-निरुद्ध-दिणयर-करप्पवेसं पविसिऊण तमाल-तरु-"निउंजमियमइवाहेमि मज्झण्ह-समयं' ति चितिंऊण जाव तत्थ पविसइ ताव 'परोवयारेक-रसिय ! सयलजियलोय-वच्छल ! परदुक्ख-विमोक्खणक्खम ! महापुरिस ! रक्ख रक्ख ममं' ति करुण-सई सुणेइ । तओ निक्विवेण केणावि का वि वराई पीडिज्जइ त्ति चिंतयंतो करुणारसाउन्न-हियओ सिग्घयरं तरु-निउंजम्मि पविहो । कं के ल्लि-पल्लवारुण-कर-चलणाए क यलि - क्खं भविब्भमोरुजुयलाए सुरसरि-पुलिण-विसाल -नियंब-भर-मंथरंगीए तिवलि-रेहंत-मुहिगेज्झ-मज्झभागाए थोर-थणव-घोलंत-महंतमुत्ताहलहाराए कमलदल-दीह-नयणाए संपुन्न-मयंक-समाण-वयणाए रयण - कुंड लुल्लिहिय- गंड ले हाए रमणीए कयब्भुहाणो तीए चेव नवपल्लव-विरइयासणम्मि 'उवविससु' त्ति भणिए निसन्नो नरिंदो ।
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