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________________ ७६ सिरिसोमप्पहसूरि-विरइयं एत्तो य समागओ "सरय-कालो विरह-वेगु व्व जो भूरि सासावहो, ख्ववंतो व्व सोहंत-निम्मल-नहो, पुन्न-पुंजो व्व वढत-कमलोदओ, कमल-संडो व्व सव्वत्थ-सच्छप्पओ । जहिं पक्व निरंतर सालिखेत्ता, ढिक्वंति चउद्दिसि वसह दित्ता । सत्तच्छय-परिमल-वाउलाइं, वियरंति वणंतरि अलिउलाई ।।४५।। गोवीयण दिति पहिह रास, दीसंति दिसासु सहास कास । दीवूसव-इंदमहाइ पवर मह, महिइं इंति कय-हरिस-पसर ||४६०।। नं चंडकिरण-किरणोह-तत्त सरवर धरंति सयवत्त-छत्त । धवलऽब्भ कहति जणस्स एउ, निय-रिद्धिहिं दाणु विसुद्धि देउ ||४६१|| संपत्त-अहिय-जुण्हा-पवाहु, निव्ववइ महीयलु रयणिनाहु । जो अहव होइ विमलस्सहावु, सो कुणइ न नूण परोवयावु ||४६२|| मयमत्त वणंतरि तरुण दंति, भंजंत महद्दुम संचरंति । मलिणाहं रिद्धि अहवा अवस्सु, संपज्जइ दुह-कारणु परस्सु ||४६३।। लद्धं गुरु-वित्थारं पत्ताओ तणुत्तणं गिरिनईओ । महिहर-समुब्भवाणं रिद्धीण कहंति अथिरतं ॥४६४।। कलुसं ति जं न पीयं पच्छा सच्छं जणेण पिज्जतं । तं पि जलं कहइ इमं सव्वो सच्छो पिओ होइ ||४६५।। वासासु आसि हरिसो सिहीण हंसाण संपयं जाओ । • सासूए के वि दिणा के वि वहूए इमं सच्चं ।।४६६|| तडिगुण-तंती-परिगय-सुरिंदधणु-पिंजणेण नह-भवणे । धवलब्भ-रूय-पडलं सरय-सिरी पिंजइ व्व दढं ||४६७।। तम्मि सरय-काले आगंतूण अत्थाण- मंडवे निसन्नो विनत्तो विजयसेण-राओ “उज्जाणपालेण । जहा वर-सरि-पुलिण-नियंब-बिंब पंकय-वयण, सारस-मिहण वणथलि हंसावलि-दसण । सरय-सिरी तुह नरवर ! दंसणमभिलसइ, पइ अनियंत-समीरिण दीहं नीससइ ।।४६८।। ता गंतुं उज्जाणे एसा निय-दसणामयरसेण । "आसासियउ वराई जा अज्ज वि नो अइक्वमइ ।।४६१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001386
Book TitleSumainahchariyam
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRamniklal M Shah, Nagin J Shah
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages540
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size8 MB
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