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पद-रचना : क्रिया-प्रकरण
अपभ्रंश भाषा में प्राकृत के समान ही रूप चलते हैं, पुरुष के कुछ प्रचलित रूप इस प्रकार हैं :
ब.व.
ए. व.
म.पु. भुंजेज्जसु, जिणेज्जसु
प्राकृत ( कुछ अन्य रूप)
ए. व.
वट्टे, लहेअं,
गच्छे, वट्टेअं
वट्टे, गच्छे
वट्टे
उ.पु.
म.पु.
अ.पु.
पालि
उ.पु.
सियं, अस्सं
ए. व.
ब.व. अस्साम
ब.व.
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वट्टे
भे
लभेथ
रक्खेज्जहु
पालि (आत्मनेपद)
ए.व.
ब.व.
( लभेय्यं) लभेमसे ( लभेय्यम्हे)
(अस्)
म.पु.
अस्स
सिया
अस्सथ
[दा, नी, भू एवं कथ् के प्राकृत में क्रमश: दे, णे, हो एवं कहे तथा पालि में दद-दे, ने, ही - हे एवं कथे में प्रत्यय लगाकर रूप चलते
हैं ।]
७९
अ.पु.
सिया, अस्स
सियं, अस्सु
मध्यम
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(लभेय्यव्हो)
(लभेरं)
प्राकृत
अ.पु. ए. व
(v) भूत काल
बीते हुए समय की विभिन्न अवस्थाओं को प्रकट करने के लिए तीन भूत कालों का प्रयोग होता था परंतु प्राकृत भाषाओं में इनका लोप होने लगा । परोक्ष भूत काल तो बिल्कुल अदृश्य हो गया और अनद्यतन एवं सामान्य भूत काल एक दूसरे में मिलकर फिर लुप्त हो गये । भूत काल के कुछ रूप प्राचीन पालि साहित्य में और अल्पांश में अर्धमागधी साहित्य में मिलते हैं । बाद के प्राकृत साहित्य में भूत काल के रूप नगण्य ही रहे और अपभ्रंश में तो इनका भी पूर्णतः लोप हो गया । प्राकृत में वस्तुत: भूत काल का बोध प्रायः कर्मणि भूत कृदंत के द्वारा किया जाने लगा ।
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