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________________ द्वितीय संस्करण का प्रास्ताविक इस ग्रंथ का प्रथम संस्करण १९८२ में छापा था और लगभग दोतीन वर्षों से यह पुस्तक नहीं मिल रहा था । विद्यार्थियों और अध्यापकों की आवश्यकता को ध्यान में रखकर यह द्वितीय संस्करण प्रकाशित किया जा रहा इसके प्रथम संस्करण में 'प्राकृत भाषाओं में प्राक्-संस्कृत तत्त्व' नामक शीर्षक वाला नौवा अध्याय था उसे इसमें से निकाल दिया गया है। अर्धमागधी भाषा के विषय में जो जो नवीन सामग्री प्रकाश में आयी है उसको ध्यान में रखते हुए इस ग्रंथ के परिशिष्ट के रूप में उसके व्याकरण से संबंधित नयी सामग्री जोड़ी गयी है । जिससे मध्यवर्ती व्यंजनों में होने वाले ध्वनिपरिवर्तन संबंधी नयी जानकारी प्रकाश में लायी गयी है और अर्धमागधी भाषा जैन महाराष्ट्री से कितनी स्वतंत्र और अलग भाषा है यह भी स्पष्ट हो रहा है। इसके साथ साथ एक प्राचीन आगम ग्रंथ 'इसिभासियाई' की वह शब्दावली भी जोड़ी गयी है जिसमें मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों और महाप्राण व्यंजनों की स्थिति यथावत् है और वे शब्द पालि के समान हैं जिससे अर्धमागधी की अन्य प्राकृतों से क्या विशिष्टता है और वह पालि से कितनी निकट है यह भी स्पष्ट हो जाता है । इस द्वितीय संस्करण को प्रकाशित करने के लिए स्वर्गीय पं. दलसुखभाई मालवणिया और डॉ. हरिवल्लभ भायाणी ने जो सम्मति प्रदान की थी तदर्थ उनका सहृदय आभार मानता हूँ और अब उसे प्रकाशित करने के लिए प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी और उसके नये पदाधिकारियों डॉ. नगीनभाई जी. शाह और र. म. शाह का आभार मानता हूँ । इस ग्रंथ के प्रूफ-संशोधन में डॉ. शोभना आर. शाह ने सहयोग दिया है तदर्थ उनका भी आभार मानता हूँ। २६ मार्च, २००१ के. आर. चन्द्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001385
Book TitlePrakrit Bhasha ka Tulnatmak Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages144
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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