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विविध प्राकृत भाषाएँ
(घ) अर्धमागधी
अर्धमागधी का दूसरा नाम आर्ष प्राकृत है । यह श्वेताम्बर जैन आगम साहित्य की भाषा है जिसका कुछ अंश प्राचीनतम प्राकृत साहित्य माना जाता है । इसके लक्षण इस प्रकार हैं :
(१) मध्यवर्ती व्यंजन का लोप होने पर 'य' अथवा 'त्' श्रुति पायी जाती है:
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सेणित, सेणिय ( श्रेणिक), लोय (लोक), कूणित ( कूणिक ) (२) मध्यवर्ती ग् प्रायः यथावत् रहता है : नगरी, आगम, भगवं, भगिणी ।
(३) मध्यवर्ती क् का ग् भी होता है :
एग (एक), असोग (अशोक), लोग (लोक), सावग ( श्रावक ) । (४) मध्यवर्ती त् और द् वैकल्पिक यथावत् रहते हैं :
णेता, णेयाः भेद, भेय ( नेता, भेद )
(५) प्रारंभिक और मध्यवर्ती न् का वैकल्पिक ण् होता है : नगर, णगर, अनल, अणल, सव्वन्नु, सव्वण्णु (सर्वज्ञ) (६) मध्यवर्ती भू और य् की प्राय: यथावत् स्थिति रहती है : लाभ, सोभा, विभव, पयोग
(७) मध्यवर्ती प् कभी कभी व् या म् में बदलता है : सुविण, सुमिण ( स्वप्न ), नीव, नीम ( नीप )
(८) मध्यवर्ती र् का कभी कभी ल् हो जाता है :
कलुण (करुण), चलण (चरण)
(९) कुछ शब्दों में प्रारंभिक तालव्य व्यंजन का दन्त्य व्यंजन में परिवर्तन
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