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________________ १७ ध्वनि-परिवर्तन (३) संधि प्राकृत भाषा में संधि की शिथिलता और अनियमितता पायी जाती है । उसमें विकल्प से संधि होती है। (१) मध्यवर्ती व्यंजन का लोप होने पर शेष रहे हुए स्वर की संधि प्रायः नहीं होती है : णअर (नगर), विआर (विकार), नई (नदी), पउर (प्रचुर), आएस (आदेश), विएस (विदेश), रिउ (रिपु) विओग (वियोग), पओजण (प्रयोजन) . [अपवाद : अंधार (अंधआर-अन्धकार) सूमाल (सुउमाल सुकुमार), आअ (आअअ-आगत), मोर ( मऊर . मयूर), थेर (थइर-स्थविर)] (२) नाम-विभक्ति और क्रिया-प्रत्यय के लिए प्रयुक्त स्वरों में भी प्रायः सन्धि नहीं होती है : सव्वओ (सर्वतः), रमाए (रमया), णयरीओ (नगर्यः), हसइ (हसति), गच्छउ (गच्छतु), करिअव्व (कर्तव्य) [अपवाद : काही (काहिइ-करिष्यति), होही (होहिइ-भविष्यति )] (३) दो पदों के बीच में विकल्प से संधि होती है : तस्स उवएसेण, तस्सोवएसेण (तस्य+उपदेशेन) (४) समास में भी विकल्प से संधि होती है : पव्वयआरोहण, पव्वयारोहण (पर्वत+आरोहण) । प्रथम पद के अंतिम स्वर का विकल्प से लोप करके दूसरे पद के प्रारंभिक स्वर के साथ संधि की जाती है : हसामि अहं, हसामहं; तुब्भे इत्थ, तुब्भित्थ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001385
Book TitlePrakrit Bhasha ka Tulnatmak Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages144
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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