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ध्वनि-परिवर्तन
रूप से य अथवा या हो जाता है और इसे य श्रुति कहते हैं । यह य श्रुति प्राय: जैन प्राकृत की विशेषता है ।] क : सअल (सकल), सउण (शकुन), सेवय (सेवक),
दारिया (दारिका), मडय (मृतक) । ग : अणुराअ (अनुराग), गअण (गगन), सायर (सागर) च : लोअण (लोचन), रुइर (रुचिर), पउर (प्रचुर), वयण
(वचन), वियार (विचार) ज : रअणी (रजनी), भुआ (भुजा), राया (राजा), भायण
(भाजन), पया (प्रजा) त : जीअ (जीत), रइ (रति), अईअ (अतीत), ताय
(तात), रसायल (रसातल), माया (माता) द : मअण (मदन), णई (नदी), आएस (आदेश),
पओस (प्रदोष), वेय (वेद), अन्नया (अन्यदा) : कइ (कपि), गोउर (गोपुर), दिसायाल (दिशापाल) : काअ (काय), मऊर (मयूर) पओवाह (पयोवाह),
विओयण (वियोजन), पओजण (प्रयोजन) व : भुअण (भुवन), देई (देवी), अडई (अटवी)
'प्' का 'व्' भी होता है : प-व : मंडव (मण्डप), रूव (रूप), कविल (कपिल),
उवाय ( उपाय), उवहास ( उपहास) (४) मध्यवर्ती महाप्राण व्यंजन ('च' वर्ग और 'ट' वर्ग सिवाय)
'ख्', 'घ्', 'थ्', 'ध्', 'फ्' और 'भ्' का प्रायः 'ह' हो जाता
ख
: मुह (मुख), सही (सखी), लेह (लेख), साहा
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