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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
सरितीरतावसाणं पक्खित्तकुसुमक्खयघ(ग्घ)सलिलाण । तरलियपुच्छपरिच्छड-मीणउलं कुणइ दरहासं ।।८०३।। इय नाणाविहनियनिय-वावारपरायणम्मि मुणिनिवहे । राया बडुगण-तावसि-परिवारो जिणहरम्मि गओ ।।८०४।। जा जाइ पुरो ता तेहिं दोहिं बालाहिं पुव्वविहिणा य । कयसयलपूयकम्मं जिणनाहं नियइ नरवालो ।।८०५।। तो पणमिऊण परमेसरस्स पाए तिरिच्छवलियच्छं । पेच्छइ लडहंगनिवेस-सुंदरं पुव्ववरतरुणिं ।।८०६।। अह चिंतइ नरनाहो किमेस जिणपणमणपसाओ ? । किं वा जम्मंतरसुकय-कम्मफलपरिणई मज्झ ? ||८०७।। जमिमीए समुच्छुय-मणपसायपरिपेसियच्छिविच्छोहा । दूयव्व मज्झ हिययं नंदति अभिद्दवंति खणं ।।८०८।। दसणमेत्ते वि जया अउव्वसुहसंगयं मणं कुणइ ।
उवभुत्ता पुण एसा तं किं जं न समहियं काही ? ||८०९।। अहवा- न सुहाण अत्थि अंतो इमीए मह दंसणेण परिकहियं ।
उवभुत्तबहुसुहो वि हु जेण अउव्वं सुहं पत्तो ।।८१०॥ संते वि धरावलयम्मि मणहरे लडहरूवजुवइजणे । सा नत्थि तत्थ का वि हु अणुहरइ इमीए जा नारी ।।८११।। तो तावसी वि सव्वं पूयाइ जहक्कमं करेऊण । सह बालियाहिं पउणा नरिंदपासं समणुपत्ता ॥८१२।। जाइज्जइ वि तीए संलत्ते बडुयवंद(?द्र)परिवारो । पत्तो समत्तसंझा-विहिकम्मे आसमपयम्मि ॥८१३॥
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