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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
अवधारिऊण सम्मं विहावियं 'सुविणओ मए दिट्ठो । एवं न कयाइ मए पुव्विं सुविणंतरं दिवं ।। ७४२९ ।। ता को इमस्स होही भावत्थो सुमिणयस्स दिट्ठस्स ? | अहवा परिभाविस्सं समयं सिरिवीरसेणेण' ||७४३०|| उट्ठइ सयणाओ तओ राया कयसयलगोसकरणीओ । साहइ सुयस्स सव्वं पणामकरणत्थमायस्स || ७४३१|| तो मुणियसयलगंथ[त्थ] वित्थरो भाइ वीरेसेणो वि । 'देव! पसत्थो सुमिणो परिणामसुहावहो तुम्ह ||७४३२|| पयडंतो जहवट्ठियसंसारअसारयं गुरु व्व इमो । कस्स न कुणेइ सुविणो पडिबोहं भव्वलोयस्स ? ||७४३३॥ एसो अणाइनिहणो संसारो चेव सायरो होइ । चउरासिजोणिलक्खा कल्लोला एत्थ विण्णेया || ७४३४ || नियकम्मपवणसंपाडिएसु गुरुविसमजोणिलक्खे । कल्लोलेसु य जीवो अन्नोन्नेसुं परिब्भमइ ||७४३५ || दट्ठूण लहरिसिहरग्गसन्निहं मणुयरज्जअब्भुदयं । मन्नइ मुहुत्तसोक्खं तत्तो पडणं तु नो मुणइ ||७४३६ || खणलवसोक्खनिमित्तं जीवो पावाई ताइं आयरइ । खिप्पs जेहिं रसंतो विरसे घोरंधनरए || ७४३७ || करि-मयरसन्निहा हुंति तत्थ नरनाह ! नरयपाला जे । तेहिं अहिदुयदेहो विसहइ गरुयाइं दुक्खाई ||७४३८ ।।
करवत्तुक्कत्तण-कुंभिपाय- असिपत्त - जंतपीडाई ।
जा जायणाओ नरए आवत्ता ते विणिवि (द्दि) ट्ठा ||७४३९।
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