SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 610
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६०१ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ पडिरुंभइ नरवग्गं अपरिचियं खलइ जुयइवग्गं पि । जोग्गिणि-पब्वइयाओ पविसंतीओ निसेहेइ ।।६५८७।। वारइ विचित्तदेसं नरिंदपत्तीण उभयघणनेहं । मंगलकुडीए छोढुं रक्खइ दारंमि ठाऊण ॥६५८८॥ वारइ विकहालावं तित्थयराईण कहइ चरियाई । जोयइ नयणवियारं उवविसिउं देइ न गवक्खे ॥६५८९।। इय एवमाइबहुविहपयत्तसयधुत्तलोयदुल्लंघे ।। अंतेउरंमि निवसइ भयजणणो रायपत्तीण ।।६५९०।। तत्थेव पहाण-भोयण-विलेवणा-हरण-वत्थ-मल्लेहिं । नरवरआएसेणं दासीओ करंति सुस्सूसं ॥६५९१।। अंतेउरम्मि बहुए संति अणेगाओ रायपत्तीओ । अच्चंतमणिट्ठाओ इट्ठयराओ वि रायस्स ॥६५९२॥ तो ताओ अणिट्ठाओ वरिससएहिं पि कह वि न लहंति । नरवइणा संजोयं मयणग्गिपरव्वसमणाओ ॥६५९३॥ इय तत्थ पुरिसदुहियाण तिव्वकामग्गिडज्झमाणाण । नत्थि कुरूव-सुरूवो त्ति ताण पुरिसं पइ विवेओ ॥६५९४॥ तो ताण तारिसीणं एगा अइलडहा जोव्वणुम्मत्ता । गुणराए अणुरत्ता नरिंदपत्ती विजयनामा ॥६५९५॥ सविसेसण्हाण-भोयणमाईहिं य तस्स कुणइ उवयारं । गुणराओ वि असंको पसायबुद्धीए मन्नेइ ॥६५९६।। तो तीए अन्नदियहे अपडुसरीरं ति मन्नमाणीए । गुणरायं पइ भणियं सगिहे निदं करिस्सामि ॥६५९७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001382
Book TitleSiribhuyansundarikaha
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorShilchandrasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages838
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy