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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
‘एवं होउ'त्ति तओ भणिए साहूहिं तस्स हिडेहिं । सम्मत्तमूलबंधो जीवाइपयत्थदढखंधो ||६५६५।। पंचाणुव्वयसाहो तिगुणव्वयपत्तपल्लवाइन्नो । चउसिक्खावयकुसुमो सुर-नरसिवसोक्खबद्धफलो ॥६५६६।। सो कप्पपायवो इव पच्चक्खविइन्नकप्पियफलोहो । गुणरायस्स विइन्नो गिहिधम्मो बारसवियप्पो ॥६५६७।। तेण वि पमुइयमणसा परमत्थमईए परमसद्धाए । गहिओ दुहसयदलणो धम्मो कम्मक्खयनिमित्तं ॥६५६८।। तो तं जहोवइटें गिहिधम्मं परमतत्तबुद्धीए । अणुपालंतो चिट्ठइ साहुसमीवे भवविरत्तो ।।६५६९।। अह अन्नया मुणिंदा विहरंता जंति महुरनयरीए । 'जिणथूहवंदणत्थं सो वि य तत्थेव संपत्तो ।।६५७०।। तो मुणिवरिंदसहिओ जिणथूहं वंदिऊण भत्तीए । उज्जाणसुहपएसट्ठिएहिं अ(स?)ह अच्छइ मुणीहिं ॥६५७१।। अह महुरानयरीए राया जसवद्धणो त्ति सुपसिद्धो । अत्थि धरायलतिलओ असेसगुणरायहाणि व्व ॥६५७२ ।। अह तस्स अत्थि दोसो एगो च्चिय सयलगुणगणमयस्स । ईसालुत्तणनडिओ मन्नइ अंतेउरं दु ।।६५७३।। अह तस्स परमइट्ठा भज्जा नामेण गुणसिरी तिस्सा । एक्का जाया धूया नामं जयसुंदरी तीए ॥६५७४।। अह अन्नया नरिंदो विणिग्गओ वाहियालिकीलाए । वाहइ विचित्ततुरए सुजच्च-वोल्लाह-कंबोए ॥६५७५।।
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