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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
एला- लवंग- कंकोल - सुरहिसिरखंडमंडियद्धंता । रमयंति व्व नरिंदं समुद्दगिरितीरपेरंता || ५४२ ॥ जहठाणनिवेसियसिविरलोय - गिरिगरुयगुड्डरगहीरं । परंतपरिट्ठियकायमाण गुणलयणिरमणीयं ॥ ५४३॥ अइगरुयपडीमंडव-संछन्ननहंतरालरविकिरणं ।
जणपडिसेहपरायण-पडिहारसहस्ससंकिन्नं ॥५४४ ॥ मणहरणनिवेससहस्सुल्लसंतसुद्धतवसहिसंगीयं । सव (व्व ) त्थ परिट्ठावियद्वाणंतरवंट्ठनट्ठजणं ॥ ५४५ ॥ इय पिहुलमहीयलसनिविट्ठसेणाविलोयणसयहो । आवास संपत्तो कुमरो जणजयजयरवेण ||५४६|| कयकयलोयचिंतो संपेसियसयलनरवइपसाओ । तद्देस-कालसमुचिय-कयकज्जो अच्छइ सुहेण ॥ ५४७ || कण्हाण - भोयणविही सुहसेज्जाए अवरण्हसमयम्मि । जा अच्छइ ताव रवी अत्थेरिसिरं समल्लीणो ॥ ५४८|| सोहइ संमीलियकमल-रोहभयभाणुमग्गलग्गेहिं । आवंदुरकिरणमिसा मयरंदेहिं व्व वरुणदिसा ||५४९|| तक्कालुमी (म्मी) लियमउलमालइगंधलुद्धभसलेहिं । उच्छाइयं व गयणं निरंतरं तिमिरखंडेहिं ॥५५० ॥ संझाजिणच्चणुज्जय-विज्जाहरपरमभत्तिपक्खित्तो । कुसुमनियरो व्व गयणे सोहइ नक्खत्तनिउरंबो ||५५१ ॥ एवंविहंमि समए कुमरो हरिविकुमो महत्थाणे । उवविट्ठो आरत्तिय पमुहकयासेसउवयारो ॥५५२॥
१. अस्तगिरिशिरसि ||
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