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________________ કદર सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ इह(य) एवमाइ बहुयं लोयं अणुसासिऊण सप्पणयं । जाव विसज्जइ वीरो ता भणिओ सव्वलोएहिं ।।६१५८॥ 'धन्नाओ ताओ नरवर ! पयाओ असि दिट्ठिगोयरे जाण । जणओ व्व जाण एवं कयसिक्खो ताण किं भणिमो ? ॥६१५९॥ इह संपइ नरवइणो निरंकुसा देव ! मत्तहत्थि व्व । पुरओ तूररवेण व खुद्धा सेवंति परपीडं ॥६१६०॥ देव ! देव ! त्ति भणिया तूसंति मणे वहंति उकुरिसं । सेवंति पुणो कम्मं जं नारय-तिरियगइजोग्गं ॥६१६१॥ वारंति तरणितावं अड्डतिरिच्छेहिं छत्तनिवहेहिं । नरयग्गिमहातावोवसमे उ निरुज्जमा होति ॥६१६२।। धारंति न दिन्नं पि हु उवएसं नरिंद ! सवणेसु । तं वोढुमसक्केसु व मणिकुंडलहारखेएण ।।६१६३।। कह उल्लासं पावइ ताण विवेओ नरिंद ! हिययंमि । जो कंचणभूसणसंकलाहिं बद्धो व्व अणवरयं ॥६१६४॥ जइ कह वि ताण गुणिसंगसंभवो घडइ पुन्नपरमाणू । ता चलिरचामरानिलपहओ व्व खणेण ओसरइ ।।६१६५।। तुम्हारिसाण जा पुण कलिकाले वीर ! होइ उप्पत्ती । सो मरुदेसे पउमिणिसरोवमो जणइ अच्छरियं ॥६१६६॥ गुरुगिम्हदुसहसंतावतत्तदेहाण सव्वलोयाण । आसासंतो भुयणं घणो व्व अब्भुन्नओ तमिह ॥६१६७।। ता देव ! तए इण्हि मओ व्व संजीविओ जणो सव्वो । चिरदुक्खताविओ इव नरिंद ! निव्वाविओ निययं' ॥६१६८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001382
Book TitleSiribhuyansundarikaha
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorShilchandrasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages838
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size10 MB
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