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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
तो समकालं सव्वाहिं चेव विज्जाहरीहिं चइऊण । रक्खसिभावं विहियं नियपयइमणोहरं रूवं ।।५४२३।। निब्भरनिदासुत्तस्स तस्स जह जह नियंति वररूयं । तह तह अहिययरं चिय ताण मणे फुरइ मयणग्गी ।।५४२४।। तो भणइ मयणसेणा 'न एस सामन्नमाणुसायारो । आयारसमुचिओ च्चिय एयस्स परक्कमो होही ||५४२५।। अहवा को संदेहो जयपयडपरक्कमो क्खु एस जुवा । हंतूण जेण पवणं रंडत्तं अम्ह आणीयं' ||५४२६।। थु थु त्ति पभणिऊणं सिंगारवईए जंपियं एयं । दीहाऊ(उ)ए जियंते इमंमि कहमम्ह रंडत्तं ?' ||५४२७।। तो भणइ चंदलेहा 'सहीओ किं तुम्ह जीविएणेह ? | जं एस रूवनिज्जियमयणंगो कीरइ न भत्ता ?' ||५४२८।। तो कामसिरी जंपइ ‘इमा पसिद्धी न अन्नहा होइ । जं बहुरयणा पियसहि ! वसुंधरा भयवई एसा ।।५४२९।। अह भणइ पुष्फदंती 'जाव न पीणत्थणोवरिं धरिउं । आलिंगिज्जइ पियसहि ! ता कह सियलाइ मह अंगं?' ||५४३०।। तो भणइ वसंतसिरी ओसरह सहीउ ! तुम्ह चक्खुभया । उत्तारिस्सामि अहं इमस्स लोणं सहत्थेण ॥५४३१॥ तो भाणुमई पभणइ ‘सहि ! सच्चमिणं पयंपियं तुमए । एवंविहंमि पुरिसे अवस्स चक्खूणि लग्गति' ॥५४३२।। भणियं पहावईए 'किं पलवह ? कुणह जमिह कायव्वं । सुविनिच्छियबुद्धीणं कज्जपहाणा समारंभा' ।।५४३३।।
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