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________________ ४८२ एवं न देव ! जइ ता सब्भावसिणेहसंगया तहवि । अवहीरिया लए कह एसा 'धुत्ति'त्ति काऊण ? ।।५२७९ ॥ निक्कारिमनेहाए इमीए जो तुज्झ 'कारिम'त्ति मई । सो तुज्झ पंडियस्स वि अयाणुयत्तं पयासेइ' ।। ५२८० ॥ तो भइ वीरसेणो 'सुजाण ! कह जाणियं तए एयं ? | जं किर ममंमि एसा सब्भावसिणेहरत्त त्ति ?' ।। ५२८१ ॥ तो पुण मए पभणियं 'रोमंच - पकंपमाइणो देव ! । एए सत्तियभावा न कारिमा होंति नियमेण ॥५२८२॥ संगोस्सिइ पुलयं पिहुलपडतेण कहवि अंगेसु । जिणवंदणत्थविरइयकरंजली न य पउट्ठेसु ।।५२८३ ।। संगोवइ मयणवियारचेट्ठियं विहियहिययपागब्भा । थरहरियथूलथणहरपयडं कह पिहउ तणुकंपं ? ।। ५२८४ ।। कूडुत्तरबहुलाए वि होही अन्नत्थ उत्तरमिमी । आणंदबाहसंदिरनयणेसु किमुत्तरं दाही ? ।।५२८५ ।। तो देव ! इमे भावा न हवंति कया वि कारिमसरूवा । तेण विनिच्छइऊणं भणामि निक्कारिमा एसा' ||५२८६ ॥ एत्यंतरंमि बाला सव्वं जिणवंदणाइवावारं । काऊण सहीहिं तओ सहासमिव पुच्छिया एवं ॥ ५२८७ ॥ 'सहि ! अज्ज महच्छरियं असंभवं जायमणणुहूयं च । किं अम्ह चेव एयं अह तुज्झ वि फुरइ चित्तंमि ? ||५२८८ ॥ जं जिणपुयच्चण-वंदणाइ सव्वं तदेकचित्ताए । अणुचेट्ठियं पयाहिणकम्मं तु परव्वसाए व्व ॥५२८९ ॥ पृथुलवस्त्रांतरितत्वेन, खंता. टि० ॥ पिहुलपडतेण १. सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only { www.jainelibrary.org
SR No.001382
Book TitleSiribhuyansundarikaha
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorShilchandrasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages838
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size10 MB
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