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________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ वरगंध-वास-कुसुमक्खएहिं नेविज्ज-धूव-दीवेहिं । परिपूइऊण देवं पुण वंदइ परमभत्तीए ॥५२६८॥ अहिवंदिऊण देवं पयाहिणं जाव देइ उवउत्ता । दिवो ताव भवंतिय-गवक्खपंतीए वीरवई ।।५२६९॥ भुवणच्चब्भुयनरनाहरूवदंसणसविम्हओभंता ।। न तरइ पुरओ गंतुं न य लज्जापरवसा ठाउं ॥५२७०॥ अइकुसलस्स वि दुल्लहनेहविमूढस्स किं पि तं होइ । न गुणा न बुद्धिपसरो न धीरिमा जत्थ उवयरइ ॥५२७१।। जह तीए जयं पि पुरा सनेहराएण पाडियं दुत्थे । . दिन्नपडिहो गओ तह निवाडिया सावि कुमरेण ॥५२७२।। मा कुणउ को वि गव्वं जोव्वण-सोहग्ग-रूव-दव्वेहिं । किं कीरइ जयमेयं गरुयाणं संति गरुययरा ॥५२७३॥ हिययभंतरपसरंतगरुयपेम्माणुरायविवसाए । जायं वियक्खणाए वि मुद्धत्तं जयवडायाए ।।५२७४।। दिट्ठो सुहेण पुरओ तिरिच्छवलियच्छमऽहतिरिच्छच्छो । दइओ वलंतकंठच्छिमणहरंतीए पिटुंमि ॥५२७५।। नवकन्नपूरमंजरिविलग्गभमडंत(?)ताररम्मेहिं । तरलायइ न कुमारो विद्धो वि हु तीए नयणेहिं ॥५२७६।। तो विणयपणयसारं निकारिमनेहनिब्भरं तिस्सा । दटुं तहासरूवं सदयं वीरो मए भणिओ ॥५२७७॥ 'वच्चउ खयं नराहिव ! जम्मो वेसाण पयइकुडिलाण । सब्भावो वि हु जाणं नज्जइ मायापवंचो व्व ॥५२७८॥ 32 . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001382
Book TitleSiribhuyansundarikaha
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorShilchandrasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages838
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size10 MB
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