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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ इह नाइदूरदेसे सरोवरं अत्थि विमलजलभरियं । ण्हाऊण तत्थ तुरियं आगच्छसु तयणु जुज्झामो ॥३१३।। एवं करेमि तुरियं खग्गं घेत्तूण निग्गओ कुमरो । चिंतेइ महाराओ अवलोइयपुत्तसामत्थो ॥३१४।। लद्धा पुत्तपरिक्खा एयस्स वि. जत्थ खेत्तवालस्स । सेन्नसहियस्स एवं का गणणा तस्स अम्हेहिं ? ॥३१५।। सिद्धं सज्झं संपइ हरिविकुमभुयबलं च पडिवन्नं । एयस्स रणे मल्लो पुरंदरो जइ परं होइ ।।३१६।। सव(व्व)त्थ जयं वंछंति सपु(प्पु)रिसा जीवियव्वचाए वि । पुत्ताओ च्चिय सोहइ पराजओ इह परं एगो ॥३१७।। जइ कहवि समागच्छइ तुरियं ण्हाऊण रणरससयण्हो । ता नत्थि तओ मोक्खो अदिन्नसमरस्स मह निययं ॥३१८॥ इय चिंतिऊण राया तुरियगई जाइ तप्पएसाओ । ल्हुक्कइ चंडीभवणा पडिमापुट्ठीए सुयभीओ ।।३१९।। कुमरो वि सरवरे ण्हाऊण रणभूमिमागओ तुरियं । पेच्छइ न महारायं अह चिंतइ कत्थ सो सुहडो ? ॥३२०।। कहमेत्थ सो न दीसइ ? तायमहिक्खिविय कत्थवि पलाणो । अहवा मं पडिवालइ इह कत्थवि सुन्नदेवउले ॥३२१।। तो देवउल-विहारासम-मढाईसु सव्वठणेसु । परिभमइ गवेसंतो वाहरइ य गरुयसद्देण ॥३२२॥ भो भो पयंडविक्कम ! वीराहिव ! निसिविहारदुल्ललिय ! । भडचूडामणि ! अहयं समागओ किं न तुममेसि ? ॥३२३॥
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