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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
जेणं चिय अवहरिया चंदसिरी दिव्वविमाणेण । तत्थेव समारूढो एही बहुखयरपरिवारो' ||४०५९।। इय भणिऊणं देवी पुण भणइ 'ममंगचंदणरसेण । आलिंपसु नियदेहं पुणन्नवो होसि जेण तुमं' ||४०६० || इय भणिऊणं देवी संकंता झत्ति मूलपडिमाए । राया वि परमहिट्ठो जहोवइट्ठ अणुट्ठेइ ॥ ४०६१ ॥ तो पुणरवि सविसेसं पूयं काऊण परमभत्तीए । थुणिऊण पुणो बाहिं निग्गच्छइ गब्भगेहाओ ||४०६२ || जा निव्वियप्पच्चि (चि) तो वच्चइ तो पेच्छए ममं पुरओ । जोकारिओ मए चिय नरनाहो परमविणएण ||४०६३ || तो भइ नरवरिंदो 'कत्थ तुमं ? एत्थ केण कज्जेण । संपत्ती पन्नायर ! भीसणरयणीए एक्कंगो ?” ||४०६४।। तो पुण मए पभणियं 'संपत्तो देविदंसणनिमित्तं ।
कज्जं पुण मह चित्ते जाणइ चक्केसरी देवी' ||४०६५।। अह भणइ पुणो राया 'सच्चमिणं किंतु कज्जसंसिद्धी । जइ जाया ता लट्ठे अह नो ता कहसु साहेमि ?' ||४०६६॥ अह पुण मए भणियं दरवियसियवयणपंकयच्छेण । भुयणोवयारदुत्थियदेवीए पसाहियं कज्जं ॥ ४०६७ || तो राया निक्कारणहासनिर (रि) क्खणवसेण सविलक्खो । चिंतइ 'न मज्झ कज्जं मोत्तुं कज्जंतरमिमस्स ||४०६८ || एयस्स परं कज्जं असेसकम्मक्खउज्जमो चेव । संसारियपक्खे पुण मह कज्जमिमस्स नियकज्जं ॥ ४०६९।।
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